आदमी नहीं मुसलमान बनाना है

बिल्कुल शक की बात नहीं है. बहुत से मुसलमान बहुत ही अच्छे होते हैं. पर जानना है तो यह जानिए, उन अच्छे मुसलमानों के साथ इस्लाम सलूक क्या करता है अभी एक खबर पढ़ी, किसी मुस्लिम को मुसलमानों ने मार डाला क्योंकि वह गाय काटे जाने का विरोध कर रहा था. ढंग की खबर भी नहीं बनी….खबर बनने लायक खबर थी भी नहीं. मामूली सा एक बंदा था, और खबर बनाने का खबरियों को कोई खास फायदा भी नहीं था…मारने वाले मुसलमान थे, मरने वाला गाय को बचाने के लिए मर रहा था…
छोड़िए इसे, इससे बड़ी एक खबर बताता हूँ. थोड़ी पुरानी है, पर है अपने समय की सबसे बड़ी खबर. खबर किसी पहलू चहलू खान की, किसी अख़लाक़ मियाँ या सलीम पंचर वाले की नहीं है. एक बादशाह की है, जो 38 वर्षों तक दुनिया की चौथी सबसे बड़ी मिलिट्री पॉवर वाले मुल्क का बादशाह रहा. ईरान का आखिरी शाह, मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी. 2500 सालों की राजशाही का आखिरी बादशाह. अपने समय में ईरान में उसकी बादशाहत सचमुच की बादशाहत थी…ये इंग्लैंड की कठपुतली बादशाहत नहीं थी. किसी की उसके सामने चूँ करने की मज़ाल नहीं थी. उसकी इंटेलीजेंस एजेंसी सवाक की नज़र एक एक हरकत पर थी. देश में पनप रहे कुकुरमुत्ते कम्युनिस्टों से लेकर बरगद जैसी जड़ों वाले मुल्लों तक को उसने कब्जे में रखा. कोट सूट पहनने वाला, मॉडर्न खयालों वाला…साइंस और टेक्नोलॉजी का मुरीद. अपने देश में आधुनिक इंडस्ट्रीज लगवाई, मॉडर्न शिक्षा देने वाली यूनिवर्सिटीज खुलवाई, अपने देश को एक मजबूत मिलिट्री सुपरपॉवर बनाया. अकेला मुस्लिम देश था जिसने इसरायली इंटेलिजेंस एजेंसी मोसाद के साथ मिल कर काम किया और इसरायली सेना की मदद से अपनी सेना खड़ी की. औरतों को वोटिंग के अधिकार दिए. उन्हें यूनिवर्सिटी भेजा. उनकी अपनी बेगम दुनिया की सबसे स्टाइलिश महिलाओं में एक थी. पेरिस से फैशन निकलता था तो सबसे पहले उन्हींके वार्डरोब में सजता था. तेहरान को एशिया का पेरिस कहते थे. नए साल के जश्न में शाह राष्ट्रपति कार्टर के साथ शैम्पेन चियर्स कर रहे थे, और एक मुस्लिम देश इसे टीवी पर देख रहा था.और शाह को ईरान की समृद्धि और विकास के साथ साथ ईरान के शानदार इतिहास की भी फिक्र थी. वह अपने इतिहास को 2500 साल पहले, इस्लाम के 1000 साल पहले, राजा साइरस के जमाने तक देखते थे और गर्व करते थे. हिजरी कैलेंडर को हटा कर उन्होंने वह कैलेंडर लागू करवाया जो राजा साइरस के राज्याभिषेक से शुरू होता था.

 सिर्फ अपने देश के अंदर ही नहीं, दुनिया की पॉलिटिक्स को भी उसने साध रखा था. इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस सब उसके यार थे. सबको ईरान का तेल चाहिए था, सबको ईरान को हथियार बेचने थे. और मध्य-पूर्व में रूस को भी रोक के रखा था. पर सबको साधने के बाद भी एक छोटी सी चूक कर गए शाह...पब्लिक को क्या चाहिए यह नहीं समझ सके. पब्लिक को चाहिए था इस्लाम, क़ुरान और शरीया. 14 सालों से निर्वासित और इराक में नजफ़ शहर में बैठे एक बूढ़े मौलवी की तकरीरों के कैसेट तस्करी से पूरे ईरान में बांटे जा रहे थे. शाह की बनवाई आधुनिक यूनिवर्सिटी में पढ़कर निकले युवा एक इस्लामिक शासन की मांग के समर्थन में रातों रात सड़कों पर निकल कर आ गए. जिन लड़कियों को उन्होंने वोटिंग का अधिकार दिलवाया, कॉलेजों में आधुनिक शिक्षा दिलवाई वे फिर से बुर्का पहन कर, हिजाब बाँध कर हाथ में खोमैनी के पोस्टर लेकर सड़क पर आ गईं. अमेरिका का साथ था, राजनीति पर कब्ज़ा था, फौज भी वफादार थी...पर शाह ईरान को संभाल कर नहीं रख पाए. इस्लामिक मुल्कों में अक्सर सेनाएं विद्रोह कर देती हैं. पर यह तख्ता पलट इसबार फौज की ओर से नहीं, जनता की तरफ से हुआ था. और जनता इस बार रोटी-कपड़ा, सड़क-बिजली-नौकरी नहीं माँग रही थी...इस्लामिक राज्य और शरीया माँग रही थी. शाह को रातोंरात अपने परिवार के साथ समान बाँध कर भागना पड़ा. शाही ईरान की तरक्की की यादें बस अपने फैमिली एल्बम के फोटोग्राफ साथ में ले गए. एक मुस्लिम राज्य को तरक्की और आधुनिकता देने की कीमत शाह ने चुकाई. अपने आखिरी  दिन भागते भागते बिताए. शाह को उन्हीं दिनों टर्मिनल कैंसर हो गया. दुनिया भर से हस्पताल में भर्ती होने की चिरौरी करते रहे. खोमैनी का आतंक इतना था कि अमेरिका तक शरण देने को तैयार नहीं हो रहा था...
 जब पप्पू आलू को सोना में बदलने की मशीन की बात करता है तो हम कहते हैं, कौन सी चरस फूँक कर आया है? जब मोदीजी मुस्लिम महिलाओं को अधिकार देने, लड़कियों को शिक्षा देने, युवाओं को रोजगार देने की बात करते हैं तो मुझे लगता है,  अरे, आप मुसलमानों को यह सब जबरदस्ती देंगे क्या? उन्हें चाहिए ही नहीं...उन्हें यह सब शाह पहलवी ने देकर देख लिया...38 साल उन्हें मुसलमान से आदमी बनाने की कोशिश की...दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फौज लगवा कर भी नहीं बना पाया. आलू को सोने में बदलने वाली मशीन बन भी जाये एकदिन, यह मुसलमान को इंसान बनाने की मशीन नहीं बनने वाली...

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