दालों का निर्यात प्रतिबंध हटाये

पिछले साल बाजार में दालों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हुई थी। जमाखोर सरकारी अधिकारियों की लापरवाही, उत्पाद में कमी इसका परिणाम हुआ। दाल की कीमतों की वृद्धि के चलते सोशल मीडिया में दालों की कीमतों पर बने जोक्स की भरमार रही।

़  मेरे पास गाडी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है तुम्हारे पास क्या है?

मेरे पास दाल है।

़  ना तलवार की धार से, ना गोलियों की बौछार से

बंदा डरता है तो सिर्फ दाल की मार से

़ इस दीपावली पर हल्दीराम के ड्राई फ्रुट के डिब्बों में काजू,पिस्ता,बादाम के साथ अब

……….50 ग्राम अरहर की दाल भी मिलेगी।

़ घर में रखी तुअर दाल को बैंक में रखकर आप कमाई भी कर सकेंगे। गोल्ड

माॅनेटाइजेशन की तर्ज पर सरकार जल्दी ही तुअर दाल माॅनेटाइजेशन स्कीम लांच

करेगी।

़ अरहर दाल इतनी महंगी हो गई है कि आज के जमाने में ‘‘दिलवाले ’’ नही बल्कि

दाल वाले दुल्हनिया ले जायेगे।

़  लडके वाले:- क्या आप की बेटी दाल बना सकती है?

लडकी वालेः- क्या आपका बेटा दाल खरीद सकता है?

भारत में कई प्रकार की दालें प्रयोग की जाती है। दालें अनाज में आती है। इन्हे पैदा करने वाली फसल को दलहन कहा जाता है। दालें हमारे भोजन का महत्वपूर्ण भाग होती है। दालों की सर्व प्रमुख विशेषता यह है कि आॅच पर पकने के बाद भी उनके पौष्टीक तत्व सुरक्षित रहते हैं इनमें प्रोटिन ओर विटामिन्स बहुतायात में पाये जाते हैं। अरहर, मूंग, उड़द,चना, राजमा अधिकतर आती हैं।

दाल की जमीन के लिए उपयोगिता

मिट्टी की उर्वरता कायम रखने में दलहन की खेती बहुत महत्वपूर्ण होती है। इसके पौधों की जड़ें मिट्टी को नाइट्रोजन युक्त बनाती है। और मिट्टी की उर्वरकता कायम रखती है। तुअर के डंठल ईंधन के काम में आते है और उनका भूसा पशुओं को दिया जाता है। दाल के पौधें की जड़ों में पनपने वाले किटाणु वातावरण में नाइट्रोजन को पौधों के पोषण के लिए धरती में घोल देते है। एक बार दाल की फसल लगा दी तो अगली फसल के लिए यूरिया की जरुरत खत्म। इससे प्रकृति के चक्र में संतुलन बना रहता है।

हमारे भोजन में प्रकृति का हिस्सा है दाल, और यही प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है। पोषण और स्वास्थय की दृष्टि से दालों की कमी चिन्ता जनक है। जिन कमजोर आय के लोगों को दूध,पनीर,मछली,अंडे जैसे महंगे स्त्रोत उपलब्ध नही है उनके लिए दाल ही प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है।

दाल का अर्थशास्त्र

दाल की बढती कीमतों के पीछे एक बड़ा खेल जमाखोरी और ब्रांडेड कम्पनियों का भी है और आज की परिस्थिति में दाल की ऊँची कीमत की मुख्य वजह यही है।

जमाखोरी के साथ-साथ भारत में काम करने वाली टाटा, महीन्द्रा, ईजी-डे, रिलायन्स जैसी कम्पनियाँ भी दाल के व्यापार में उतर चुकी है और जमकर मुनाफाखोरी करने में लगी है।

ई शाॅपिंग और सुपर मार्केट के इस जमाने में आज हर कोई माॅल जाकर खरीददारी करता है। जहाँ एक किलो दाल की कीमत अच्छी सजावट और बेहतरीन पैकिंग के बाद 200 रु प्रति किलो में बेची जाती है जबकि उनकी असल कीमत 70 रु भी नही है।

माॅल्स और सुपर मार्केट में इतनी ऊँची कीमतों पर मिलने वाली दाल को देखकर छोटी दुकान वाले व्यापारी दाल की कीमत बढाने में पीछे नही हटते और कीमतों में मनमानी कर मुनाफा कमाते है लेकिन बाजार के हर छोर पर तकलीफ में सिर्फ आम आदमी ही पडता है।

दलहन की खेती क्यों कम हो गई

ज्यादा पैदावार के चक्कर में दालों की खेती कम होती गई। जिसमें ग्रामीण समाज में ईंधन व पशुओं के चारे का संकट भी पैदा हो गया।

इसका बड़ा कारण हरित क्रान्ति पायेंगे। हमने हरित क्रान्ति से गेंहू और चावल की पैदावार बढा ली लेकिन दालों के मामले में फिसड्डी हो गये। इसी दौरान सोयाबीन, गन्ना,कपास,फूलों जैसी नगदी फसलों को बढावा मिला।

हरित क्रान्ति के पहले हमारे देश में कई तरह की दाल हुआ करती थी। तुअर,चना, मूँग, उड़द, मसूर आदि।

प्रकृति के चक्र में संतुलन बना रहता है। यही वजह है कि सदियों से हमारे किसानों ने मिश्रित खेती के लिए फसलों के सही चुनाव में बडी सावधानी बरती। मुख्य अनाजों के साथ दलहन और अन्य फलीदार फसले उगाई गई जिससे मिट्टी का उपजाऊपन बना रहे। एक ही फसल चक्र से मनुष्य और मिट्टी दोनों के पौषण का यह सिलसिला पिछले कुछ साल में गडबड़ा गया है। नई तकनीक और रसायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल ने फसल चक्र को संतुलित करने की जरुरत को खत्म कर दिया। अब संतुलन कायम करने की बजाय इसपर ध्यान दिया जाने लगा कि कैसे नगदी फसलों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दिया जाय। देश की जलवायु व अन्य स्थितियों के अनुकुल जिस तरह अनाज के साथ साथ तरह तरह की दलहन और तिलहन को मिलाकर खेती की जाती थी यह व्यवस्था टूट गई है। पिछले चालीस वर्षों में दालों के उत्पादन में महज एक फीसदी का इजाफा हुआ जो कि जनसंख्या वृद्धि दर का आधा ही है। पिछले एक दशक में जहाँ घरेलु उत्पादन में 30 फीसदी की वृद्धि हुई वही आयात 17 लाख टन से बढकर 45 टन हो गया। आज दाल की घरेलु खपत के एक चौथाई की आपूर्ति आयात से होती है। जब 2006 में अंतरराष्ट्रीय बाजार में समर्थन मूल्य (डैच्) से भी कम कीमत पर दाल मिलने लगी तब सरकार ने दलहन की सरकारी खरीद से मुंह मोड लिया, परिणाम यह हुआ कि किसानों ने दलहन की फसलें उगाना कम कर दिया।

विश्व के दाल क्षेत्र का 1/3 रकबा भारत में है लेकिन यहाँ कुल वैश्विक उत्पादन का महज 20 प्रतिशत ही होता है। दालों की उपलब्धता लगातार कम होती गई है। सरकार के आंकडे बताते है कि वर्ष 1951 में देश में औसत व्यक्ति को खाने के लिए 60 ग्राम दालें उपलब्ध थी जो कि घटते-घटतें वर्ष 2007 में मात्र 35 ग्राम रह गई। भारत विश्व में सर्वाधिक दाल खपत करने वाला देश है। इस हिसाब से देश में प्रतिदिन दलहन की खपत लगभग 70 हजार टन की अनुमानित है।

सरकार क्या करें ??

लगभग 25 जिसों के लिए घोषित किया जाता है लेकिन खरीद मुख्य रुप से गेंहू और चावल की ही होती है। इस लाचार निति का खमियाजा दालों को काफी समय से चुकाना पड रहा है।

कम सिचाई और कीटों के हमलों के लिहाज से अधिक संवेदनशील होने के कारण दालों का उत्पादन भी अधिक अस्थिर होता है। सरकार की और से भरोसे मंद खरीद निति के अभाव में किसान दालों की बुआई को लेकर हिचकते रहे है। यही वजह है कि देश में दालों का उत्पादन मुख्य रुप से सिमांत और शुष्क इलाकों में ही होता आया है।

सितम्बर 2016 में अरविन्द सुब्रम्हनियन समिति ने इन कारणों को चिन्हीत करते हुए डैच् में बढ़ोतरी करने के साथ ही प्रभावी खरीद ढांचे का  सुझाव दिया था।

यहाँ तक की इस समिति ने खरीद प्रक्रिया की निगरानी के लिए एक उच्च स्तरीय समिति गठन करने की भी सिफारिस की है। इन सिफारिसो और  अतीत में गठित की गयी तमाम समितियों के बावजूद सरकार खरीद प्रक्रिया में बमुश्किल ही कोई सुधार हो पाया हैं और इस मोर्चे पर किसानों की परेशानियां जस की तस बनी हुई है।

भारत में सबसे ज्यादा दलहन उत्पादन करनें वाले प्रमुख राज्यों में मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान अन्ध्राप्रदेश एवं कर्नाटका राज्य है।

सुनिश्चित मूल्य और सुनिश्चित बाजार के कारण ही चार प्रमुख फसलों गेंहू, चावल, गन्ना एवं कपास की पैदावार बढ़ी है। केवल इन चार फसलों पर ही बाजार टिका है। मुख्यतः इसी कारण दालों का उत्पादन नहीं बढ़ पाया। यद्यपि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित कर रही हैं किन्तु पैदावार की सरकारी खरीद की कोई कारगर प्रणाली नहीं है। सुनिश्चित खरीद न होने के कारण किसानों को बाजार में सस्ते दामों में उपज बेचनी पड़ती हैं। इसी लिए किसानों का दालों की खेती से रुझान कम हो रहा है। देश में ऐसे क्षेत्रों को चिन्हित किया जाये जहां दलहन की खेती को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। यह भी सुनिश्चित करना चाहिये की दलहन की पूरी उपज का सरकारी खरीद की जायेगी।

पिछले साल दालों के दाम अचानक बढ़े

सारे देश में पिछले साल दालों की कीमतों में बेतहासा वृध्दि का दंश झेला था। दालों की कीमते 230 रु तक गयी थी । इसके कारणों में देखेगें तो लगातार दो सालों के अकाल के चलते उत्पादन में कमी आयी है। इससे किसानों और ग्राहकों दोनों को ही कठिनायी पैदा हो गयी है। दाम बढ़ने के कारण लोगो में असंतोष पैदा होने लगा स्थिति नियत्रंण में लाने हेतु सरकार ने दालें आयात की थी, व्यापारियों पर स्टाॅक लिमिट लगायी, व्यापारियों के पास छापेमारी कर अतिरिक्त जमा दालें जब्त की थी।

गत डेढ़ दशक से दालों के उत्पादन में कमी होती गयी। साधारणतः देश को दालों की आवश्यकता 230 लाख टन के आस-पास लगती है। पिछले वर्ष उत्पादन करीब 180 लाख टन हुआ। इस कमी को देखते हुए आयात करना पड़ा।

वर्तमान में अरहर की खरीद स्थिति

सरकार ने किसान समर्थन मूल्य(एमएसपी) 5050 रु निश्चित किया हैं लैकिन किसानों को 4000 रु के आस पास अरहर बिक्री की स्थिति बन रही है।

महाराष्ट्र में बारदान सरकार के खरीदी बिक्री केन्द्र पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध ना होने के कारण दालों की खरीद प्रक्रिया ठप्प पड़ गयी है। राज्य सरकार ने तत्काल में दस लाख खाली बोरों का आॅर्डर नेफैड के पास दिया है। दालों का उपेक्षित उत्पादन और खरीदी इनका अंदाजा गलत होने के कारण यह स्थिति पैदा हो गयी है। आज बारदान उपलब्ध न होने के कारण अधिकतर जिलों में खरीद प्रक्रिया में व्यापारियों का बोलबाला बढ़ा है।

गत वर्ष दालों के दाम 240 रुपये तक गये थे । दालों के दाम इतने बढ़ने के पश्चात् भी किसानों को इसका  लाभ नहीं मिला। इस किल्लत और दामों के चलते भारत सरकार ने पिछले साल दाल प्रोत्साहन वर्ष घोषित किया और इसके लिये विभिन्न योजनायें क्रियान्वित की थी।

भारत में दालों की कमी के चलते दाल उत्पादक देशों ने अपने देशों में दाल की फसल बड़े पैमाने पर बोयी। एमएसपी के घोषित समर्थन मूल्य से दालें खरीदी जा रही है। ऐसा देखकर केन्द्र शासन में खरीदी केन्द्र शुरु किये है। लेकिन रखने की उचित व्यवस्था का अभाव, अपर्याप्त कर्मचारी वर्ग इससे खरीद प्रक्रिया बड़ी धीमी गति से चल रही है। महाराष्ट्र में अनेक जिलों में किसानों ने अपनी दालें बेचने के बाद भी 15-20 दिन तक उसका पैसा मिलता हैं। तथा माल बेचने के लिये उसे एक दो दिन कतार में खडे़ रहने की नौबत आ रही है। इससे त्रस्त होकर अनेक किसान अपना माल जो मिले उन दामों में व्यापारियों को बेचने को मजबूर हो रहे है। और उनके जगहों पर तो व्यापारी द्वारा ही माल केन्द्रों पर खरीदा जाने की शिकायतें हो रही है। इसमें सरकारी अधिकारियों की व्यापारियों के साथ गठजोड़ काम कर रही है। इसमें सरकार को ध्यान देकर किसानों का माल ही खरीदने को वरीयता देने की आवश्यकता है।

वर्तमान स्थिति में क्या करें

इस साल अंदाजन 210 लाख टन दाल पैदावार होने की संभावना हैं। इस लिये दालों के खरीदी दाम किसानों के संदर्भ में गत 5 वर्षों में निचांक पर है। सरकारी एमएसपी प्रति क्विं. 11000 रु है, लेकिन किसान माल बेच रहा है 4500 रु/क्वि.।

निर्यात बंदी हटाने से अंदाजन 5/6 लाख टन दालें निर्यात होंगी ऐसा निर्यातदारों का कहना है। और इससे 10 से 15 प्रतिशत भाव वृध्दि किसानों को मिलेगी।

साधारणतः गत 5/6 सालों का अनुभव यह कहना है किसानों की दाले बेचने के बाद ही दालों के दामों में बढ़ोतरी दिखती है। पिछले साल का ही देखें तो एप्रिल अंत तक यानि किसाल अपनी दाले बेचने तक पाँच हजार रु में बेचा गया और मई अंत तक वह बारह हजार तक पहुँचा इसका अर्थ साफ है कि अतिक्ति दामों में वृध्दि यह केवल बड़े व्यापारियों के संग्रह के कारण होती है।

देश के अंतर्गत जमाखोरी पर नियंत्रण रखने हेतु प्रशासनिक तत्रं आधुनिक होने की आवश्यकता है, यह समस्या निवारण का महत्वपूर्ण उपाय है।

जिस समय निर्यात की घोषणा होकर खुलती है उस समय संबधित फसल के दामों के चलते जमा खोरों को संग्रह करना नुकसानदायी होती है क्यों कि दाम अंतर्राष्ट्रीय दामों के समकक्ष होते है। निर्यात बंदी के चलते किसान माल बेचता है। जमाखोरी करने वाले व्यापारी सस्तें में खरीदता है। और दीर्घ काल उसे संग्रह कर मुनाफा कमाता है।

दालों के बाजार दाम सतत् कम रहते तो फसल उत्पादन क्षेत्र कम होते जाते और बाद में दामों के बढ़ते दाम राजनितिक आरोप प्रत्यारोप चलना प्रारम्भ होता है और फिर देश को दालें आयात करनी पड़ती है।

दुनिया में भारत दलहन के संदर्भ में सबसे बड़ा उत्पादक, ग्राहक और आयात करने वाला देश ऐसी छवि है। इसमें आयातदार के बजाय निर्यातदार होने संधी हमें प्राप्त हुअी है। ऐसी स्थिति में दलहन उत्पादक किसान को जागतिक व्यापार संधि से दूर रखना रास्त रास्ता नहीं है। वैश्विक दामों के अनुसार किसानों को उचित लाभ मिलना चाहिये। निर्यात खुली करने से ग्राहक, किसान, सरकार सभी घटकों को लाभ मिलेगा। जब कभी किसानों को उचित मूल्य मिलता है उस समय फसल उत्पादन क्षेत्र में वृध्दि दिखायी देती हैं। इससे स्पर्धा बढ़कर आयात करने वाला देश भविष्य में दलहन निर्यात करने की स्थिति में आयेगा।

अरहर पर निर्यात प्रतिबंध हटाने की आवश्यकता

लगभग गत 10 सालों से अरहर दालों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाया है। 7 साल पहले विदेशी बाजार में अरहर की कीमतें देश के किसान समर्थन मूल्य से कम दाम पर उपलब्ध थी, इसे देखकर सरकार ने यह निर्णय किया था । वर्तमान में सरकार द्वारा दलहन पैदावार बढ़ाने के प्रयासो के चलते उत्पादन बढ़ गया जिससे चलते दामों में गिरावट आयी है तथा विदेश से आयात होने वाली दालों पर शून्य प्रतिशत इंपोर्ट ड्यूटी लगायी है, यह भी दाम गिरने का महत्व का कारण है।

भारत में पैदा होने वाली दालों की गुणवत्ता विदेशों की तुलना में अधिक है इसलिए दुनिया के अधिकतर देशों में भारत की दालों की मांग अधिक है।

सरकार ने शून्य प्रतिशत आयातकर हटाकर विदेशों में दालें निर्यात करने की मंजूरी देनी चाहिये तथा किसानों की दालें खरीदने की पर्याप्त प्रबधंन व्यवस्था तत्कालिक खड़ी करनी चाहिये।

Leave a Reply