इमरान खान ने किया “इस्लाम के फैलाव हेतु पक्का इरादा”


पाकिस्तानी संसद में वहाँ प्रधानमंत्री इमरान खान ने भाजपा और गुरू गोलवलकर की निंदा करते हुए पाकिस्तानियों को बहादुर शाह जफर के बदले टीपू सुलतान का रास्ता चुनने की सलाह दी। यह पहली बार नहीं। इमरान खान ने इसी साल फरवरी से अब तक तीन बार टीपू का नाम ले-लेकर बयान दिए। सीधे या घुमा-फिराकर उस का उल्लेख भारत के विरुद्ध संदर्भ में ही होता है।पर हैरत यह कि भारत में टीपू सुलतान की छवि मानों कांग्रेस नेता जैसी बनाकर रखी गई है। कर्नाटक के कांग्रेसियों ने टीपू के नाम पर बड़े-बड़े जलसे किए हैं। टीपू का क्रूर इतिहास छिपाकर उसे ‘ब्रिटिश विरोधी योद्धा’ बताया जाता है। यह अधूरा सच है। वस्तुतः, पूरे दक्षिण भारत में टीपू की आम कुख्याति उस के हिंदु-विरोधी क्रूर जिहादी होने की रही थी।  दक्षिण भारत में लोकस्मृति, और खानदानी संस्मरणों से भी लोग जानते हैं कि टीपू का शासन हिंदुओं के विनाश और इस्लाम-प्रसार के सिवा कुछ न था। अंग्रेजों से उस की लड़ाई अपने अस्तित्व के लिए थी। इसके लिए उस ने फ्रांस को आक्रमण का न्योता दिया, जिस की मदद से उस ने यहाँ जनता को रौंदा। टीपू ने ईरान, अफगानिस्तान को भी हमले के लिए बुलाया था। अतः अंग्रेजों से टीपू की लड़ाई को ‘देशभक्ति’ कहना झूठ है।  एक बार कुर्ग में टीपू सुलतान ने 70,000 हिंदुओं को इस्लाम में बलात् धर्मांतरित कर उन्हें गोमांस खाने पर मजबूर किया। मैसूर के राजमहल के पुस्तकालय में संग्रहीत बहुमूल्य पांडुलिपियाँ जलाकर अपने घोड़ों के लिए चने उबलवाए। असंख्य मंदिरों और चर्चों को नष्ट किया। यह सब जानते हुए स्वयं गांधीजी ने अपने अखबार में टीपू की एक झूठी छवि गढ़ने की कोशिश की। जबकि टीपू सुलतान किसी प्राचीन इतिहास की परिघटना नहीं। हिंदू जनता पर टीपू की अवर्णनीय क्रूरता के विवरण असंख्य स्त्रोतों में मिलते हैं।
 पुर्तगाली यात्री बार्थोलोमियो ने सन् 1776-89 के बीच के अपने प्रत्यक्षदर्शी वर्णन लिखे हैं। उसकी प्रसिद्ध पुस्तक ‘वोयाज टु इस्ट इंडीज’ (1800) अभी भी कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से नए संस्करण में उपलब्ध है। टीपू और फ्रांसीसियों के संयुक्त अभियान का वर्णन करते बार्थोलोमियो ने लिखा-‘‘टीपू एक हाथी पर था, जिस के पीछे 30,000 सैनिक थे। कालीकट में अधिकांश पुरुषों और स्त्रियों को फाँसी पर लटका दिया गया। पहले माँओं को लटकाया गया जिन के गले से उन के बच्चे बांध दिए गए थे। बर्बर टीपू सुलतान ने नंगे शरीर हिंदुओं व ईसाइयों को हाथी के पैरों से बांध दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर चलाते रहा जब तक उन बेचारे शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को गंदा और तहस-नहस करके आग लगाकर खत्म कर दिया गया।’’ प्रसिद्ध इतिहासकार सरदार केएम पणिक्कर ने ‘भाषा पोषिणी’ (अगस्त, 1923) में टीपू का एक पत्र उद्धृत किया है। सैयद अब्दुल दुलाई को 18 जनवरी 1790 को लिखे पत्र में टीपू के शब्द, ‘‘नबी मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट के लगभग सभी हिंदू इस्लाम में ले आए गए। बस कोचीन राज्य की सीमा पर कुछ अभी भी बच गए हैं। उन्हें भी जल्द मुसलमान बना देने का मेरा पक्का इरादा है। उसी इरादे से यह मेरा जिहाद है।’’ बद्रुज जुमा खान को 19 जनवरी 1790 को लिखे टीपू के पत्र में, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं कि हाल में मालाबार में मैंने गजब की जीत हासिल की और 4 लाख से अधिक हिंदुओं को मुसलमान बनाया? मैंने तय कर लिया है कि उस मरदूद ‘रामन नायर’ के खिलाफ जल्द हमला बोलूँगा। चूँकि उसे और उस की प्रजा को मुसलमान बनाने के ख्याल से मैं बेहद खुश हूँ, इसलिए मैंने अभी श्रीरंगपट्टम वापस जाने का विचार खुशी-खुशी छोड़ दिया है।’’ऐसे विवरण अंतहीन हैं। टीपू के समय से ही मौजूद अनेक लिखित सामग्री दिखाती है कि लड़कपन से ही टीपू का मुख्य लक्ष्य हिंदू धर्म का नाश तथा हिंदुओं को इस्लाम में लाना रहा था। 1802 ई. में लिखित मीर हुसैन अली किरमानी की पुस्तक ‘निशाने हैदरी’ में इस के विवरण है। इस के अनुसार, टीपू ने श्रीरंगपट्टनम में एक शिव मंदिर को तोड़कर उसी जगह जामा मस्जिद (मस्जिदे आला) बनवाई थी। उसने कब्जा की गई जगहों के नाम भी बदल कर उन का इस्लामीकरण किया। जैसे, कालीकट को इस्लामाबाद, मंगलापुरी (मैंगलोर) को जलालाबाद, मैसूर को नजाराबाद, धारवाड़ को कुरशैद-सवाद, रत्नागिरि को मुस्तफाबाद, डिंडिगल को खलीकाबाद, कन्वापुरम को कुसानाबाद, वेपुर को सुलतानपटनम, आदि। टीपू के मरने के बाद इन सब को फिर अपने नामों में पुनर्स्थापित किया गया।

‘केरल मुस्लिम चरित्रम्’ (1951) के इतिहासकार सैयद पी. ए. मुहम्मद के अनुसार, ‘‘केरल में टीपू ने जो किया वह भारतीय इतिहास में चंगेज खान और तैमूर लंग के कारनामों से तुलनीय है।’’ इतिहासकार राजा राज वर्मा ने अपने ‘केरल साहित्य चरितम्’ (1968) में लिखा है-‘‘टीपू के हमलों में नष्ट किए गए मंदिरों की संख्या गिनती से बाहर है। मंदिरों को आग लगाना, देव-प्रतिमाओं को तोड़ना और गायों का सामूहिक संहार करना उस का और उस की सेना का शौक था। तलिप्परमपु और त्रिचंबरम मंदिरों के विनाश के स्मरण से आज भी हृदय में पीड़ा होती है।’’इन के अलावा विलियम किर्कपैट्रिक की ‘सेलेक्टेड लेटर्स ऑफ टीपू सुल्तान’ (1811), विलियम लोगान की ‘मालाबार मैनुअल’ (1887), मैसूर में जन्मे ब्रिटिश इतिहासकार और शिलालेख-विशेषज्ञ बेंजामिन लेविस राइस की ‘मैसूर गजेटियर’ (1897), डॉ. आई. एम. मुथन्ना की ‘टीपू सुलतान एक्स-रेड’ (1980), आदि अनेक पुस्तकें प्रमाणिक हैं। संक्षेप में काफी जानकारी बाम्बे मलयाली समाज द्वारा प्रकाशित संकलन ‘टीपू सुलतानः विलेन ऑर हीरो’ (वायस ऑफ इंडिया, दिल्ली, 1993) में है।सभी विवरण पढ़कर संदेह नहीं रहता कि यदि 100 जेनरल डायर मिला दिए जाएँ, तब भी निरीह हिंदुओं को बर्बरतापूर्वक मारने में टीपू का पलड़ा भारी रहेगा। यह तो केवल कत्लेआम हुआ।

आज केरल व कर्नाटक में विशाल मुस्लिम आबादी का सबसे बड़ा मूल कारण टीपू सुलतान था। हिंदुओं को उसका दिया हुआ कुख्यात विकल्प था, ‘टोपी या तलवार?’। अर्थात, इस्लामी टोपी पहनकर मुसलमान बन जाओ, फिर गोमांस खाओ- वरना तलवार की भेंट चढ़ो!  टीपू के इस कौल (‘स्वोर्ड ऑर कैप’) का उल्लेख कई किताबों में मिलता है।ऐसे इतिहास का घोर मिथ्याकरण ही हमारे देश में सेक्युलरवाद है। इस से तनिक असहमति रखने को ही ‘असहिष्णुता’ बताकर सीधे-सीधे हिंदू जनता को अपमानित किया जाता है।सौभाग्यवश, वाचिक परंपरा वाले भारत में इतिहास का पूर्ण मिथ्याकरण किया नहीं जा सका। इमरान खान इसी का प्रमाण दे रहे हैं। वे असली टीपू को जानते हैं। इसीलिए हमें अपने बच्चों, युवाओं को झूठा इतिहास पढ़ाना बंद करना चाहिए। राजनीति-प्रेरित मिथ्याकरणों का उलटा फल होता है। हिंदू-मुस्लिम संबंध सहज के बदले विकृत होते और वैसे ही बने रहते हैं।झूठ की भित्ति पर सदभाव नहीं बन सकता। गाँधीजी ने यही करने की कोशिश कर 1921-1947 ई. के बीच रक्षा में हत्या की। लाखों हिंदुओं का केवल संहार ही नहीं हुआ, बल्कि शिक्षा और विमर्श में सस्ती भावुकता व झूठे, छिछले तर्कों को प्रतिष्ठित करने से हमारा बौद्धिक स्तर और चरित्र दोनों गिरा। 

इतिहास के प्रति अज्ञान, तथा हमारी धर्म-संस्कृति के प्रति उदासीनता से देश को भी बड़ी हानि उठानी पड़ी है। लोदी, बाबर से लेकर टीपू तक का महिमामंडन हिंदू धर्म, समाज की उपेक्षा और अपमान है। इसीलिए यह देश का ही अपमान है, जो गांधी-नेहरूवादी प्रभाव में लंबे समय से बेरोक-टोक चल रहा है। इसे बदलना ही चाहिए। वरना, केवल हमीं गफलत में पड़े रहेंगे। शत्रु सही इतिहास जानते हैं। इमरान खान के बयान यही संकेत हैं।

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