लडकियों को पराश्रित रखना गलत

भारत एक मात्र ऐसा देश है जहां आज भी जीवन देने वाली नारियां पराश्रित है। उनके साथ कोई नही खडा है न तो उनका परिवार जिसने उन्हें जन्म दिया और न ही वह जिनका वह वंश निस्वार्थ सेवा के साथ वह बढा रही है उसकी ससुराल ।
कहते है कि घर से खाना खाकर चलो तो सभी जगह खाने को मिलता है और यह कहावत सही भी उतरती है लेकिन जब घर से आंसू मिले हो  तो खुशी कहां मिलेगी इस बात का अहसास न तो जन्म देने वाले परिवार को होता है और न ही जीवन भर सेवा कराने वाले परिवार को, एक लडकी का जन्म होता है वह उस परिवार में जिम्मेदारी के डोर से बांध दी जाती है । परिवार की सेवा करती है और जब बड़ी  तो उसे शादी कर दूसरे के घर कुछ सामान के साथ भेज दिया जाता है।यह सामान वह होता है जो उसने उस घर के लिये बिना बोले काम करके दिया होता है नही तो वह भी नही मिलता। शादी के बाद उसे उस घर से कुछ नही मिलता जहां उसका जन्म हुआ।यानि पिता का घर , मकान में हिस्सा नही मिलता , धन दौलत नही मिलता जो मिलता है वह भी अगर भाई के लिये न छोडे तो भाई भी नही पूछता।
रही बात ससुराल की , वो तो पराया घर है वहां प्यार दुलार की बात कहां, वहां तो काम करना है ,बच्चा पैदा करना है वंश बढाना है और अगर लडकी हुई तो ताने सुनने है और तो और कभी कुछ न पाने के लिये मार भी खानी पडती है और जलना भी पडता है।किसी भी काम का कोई मोल नही होता , न खाना बनाने का ,न बर्तन धोने का ,न कपडा धोने व झाडू पोछा लगाने का और न ही रात बिताने व बच्चे पैदा करके देेने का । सारा कुछ मुफत ,आखिर लडकी के जीवन को समाज समझता क्या है यह बात आज तक समझ के परेय है। यह भी कहा जा सकता है कि सरकारी आकडो में लडकियों के कुछ नया कानून है जिसने भारतीय लडकियों की जिन्दगी को खिचडी बनाकर रख दिया हैं।
अब बात करते हैऐसा क्यों है। इसके कई कारण है लडकी के पैदा होते ही मान लिया जाता है कि उसे दूसरे के घर जाना है इसलिये उस पर खास ध्यान नही दिया जाता ।उसे वह सुविधायें नही प्राप्त है जो समाज में लडकों को प्राप्त हैं।शिक्षा भी नाम मात्र की दी जाती है और उसे काम घाम सिखाया जाता है ताकि वह घर के काम आ सके और ससुराल में भी वही काम करके दिल जीत सके। अपना जीवन उन लोगों के लिये न्यौछावर कर दें जिन्होने उसके लिये कुछ नही किया। इसके बाद वह अपने अधिकार के लिये न बोले , बचपन से ही पराये होने का अहसास कराया जाता है और ससुराल में ही रहना है इस बात की सीख पढाई जाती है आखिर क्यों ?ताकि मायके से उसका ध्यान बंटा रहें और भाई मौज कर सके। उसके हक पर डाका डाल सके।
उनकी स्थित वाकही बदलनी है तो सबसे पहले सरकार को अपने रूख में परिवर्तन करना होगा , लडका लडकी एक समान का नारा कहने से नही होगा , बराबर अधिकार देने होगें। पिता की सम्पत्ति में बेटी का अधिकार अभी सिर्फ जुबानी है, अधिकारी इसे नही मानते इसे बदलना होगा और उन अधिकारियों को मुजरिम बनाना होगा जो इस काम में बाधक है बहाने तलाश करते है ससुराल का क्या मतलब है वहां क्यांे चाहिये ,वहां उनके लडकी लडके है उन्हें मिलना चाहिये , बहू को क्यों दे ? पिता के घर लें तब बराबरी आयेगा। क्या दो सगे भाई पिता के मरने के बाद सम्पति नही बांटते है , तो फिर बहन क्यों नही।सिस्टम में यह तोड मरोड कैसा , अब तो सजातीय सरकार है विजातीय नही फिर बाप की दौलत में बेटी का हक जायज है यह बात अधिकारियों के दिमाग में कौन भरेगा जिनके अंदर अभी तक भूसा भरा है।
वास्तव में यह सिस्टम ही चोरी पर आधारित है जहां पिता के सम्पत्ति में हक न देकर ससुराल में हक मिलेगा कहा जाता है और पराया समझने वाले पिता की सम्पत्ति से वंचित कर दिया जाता है । उसके बाद ससुराल में भी परायी होने का तमका मिलता है और वहां पति के अधीन कर दिया जाता है। दोनों जगह उसके हाथ कुछ अपना कहने के लिये नही है ,मायके में भाई का और ससुराल में पति का , क्या यही कानून है । लडकियों को पति का हक मिले न मिले लेकिन मायके में जरूर मिलना चाहिये।तभी लडका लडकी एक समान हो पायेंगे

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