भारत में भी शैक्षिक आयोग का गठन होना चाहिये

jobभारत सदैव से शिक्षा के लिये विख्यात रहा है लेकिन पिछले कुछ दशकों से उसकी अस्मिता व प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची है। यह उन लोगों ने किया है जिनपर उसे और आगे ले जाने का दायित्व था। वास्तव में देखा जाय तो यही सत्ता मद है जिसके लिये भारत सदियों गुलाम रहा और अब शैक्षिक रूप से गुलाम होने जा रहा है। यह एक राजनीति ही है जो कि शिक्षा का व्यवसायिक करण कर देश की उस व्यवस्था को आधात कर रही है जिसमें देश का हित निहित है। एक अलग से हब बनाने का कोशिश की जा रही है और अहसास दिलाया जा रहा है कि विदेशी शिक्षा सबकुछ है भारत की शिक्षा कुछ नही । अब इस देश में जहां 60 फीसदी लोग बमुश्किल घर चला पाते हो , वह अपने बच्चों को देश में शिक्षा दिलाने के लिये संधर्ष कर रहे हो वह विदेश कहां से भेजें। कुल मिलाकर यह धनपशुओं की एक चाल है जो कि भारत पर हावी होने के लिये चली जा रही है।
प्राचीन काल की बात करे तो नालंदा व तक्षशिला देश के दो ऐसे केन्द्र थे जहां से देश ही क्या विश्व की शैक्षिक व्यवस्था चलती थी और विश्व को रास्ता दिखाती थी। इससे पहले यह काम काशी के नाम था और कहा जाता था कि यहां से शिक्षा ग्रहण करने वाला सभी जगह सम्मान पाता था। आज की शिक्षा को देखते है तो लगता है कि देश के किसी संस्थान में इतनी ताकत नही है कि वह यह काम कर सके। पिछलें कुछ दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में हम लगातार गिरते आते है , प्राइवेट संस्थानों ने सरकार के साथ मिलकर देश की आवाम को इस कदर लूटा कि अब गरीब के हाथ शिक्षा लगेगी यह कहना जरा मुश्किल सा है। हैरत की बात है कि शिक्षा अब उन लोगों की जागीर बन गयी है जिन्हें समाज घनपशु के नाम से जानता है। क्या यह सही है, हम आज उन विषयों को पढा रहे है जिनका व्यक्ति के जीवनउत्थान में कोई योगदान नही। बीए, एमए, बीएससी ,एमएससी , बीकाम , एमकाम जैसे तमाम विषय है जो अब प्रासंगिक नही रहे। इनका क्या मतलब है जब हम अपने विघाथियों को नौकरी ही नही दे सकते तो इसे बंद कर देना चाहिये लेकिन हम आज भी इसे पढाने के नाम पर पचासों हजार रूपये खर्च करवा रहें है और बेराजगारी की खेती कर रहें है। यही हाल बीसीए , एमसीए व बीबीए व एमबीए का है। लाख रूपये फीस देने के बाद भी गांरटी नही कि नौकरी मिल जायेगी । इसका एक ही कारण है कि शिक्षा अब दी नही जा रही बल्कि बिक रही है। आपके पास पैसा है तो यह डिग्री सर्वोच्च अंक से साथ आपके घर पर भी आ सकती है। यह पहले आसान नही था लेकिन पिछले दशक में यह भी संभव हो गया और राजनैतिक संरक्षण है इसलिये कोई कारवाई का भी डर नही है। कई यूनिवर्सिटियों ने तो दूरस्थ शिक्षा के नाम पर डिग्री बांटने का धंधा खोल रखा है। नौकरी करने वाले लाखों लोग अब यह डिग्री लेकर इंजीनियर बन गये है जिन्हें ठीक से नाम भी लिखना नही आता।
कुछ विश्वविधालयों में इसका स्तर इतना नीचे गिर गया है कि अब उसे जमींदोज करना ही बेहतर होगा। कई नामी गिरामी यूनिवर्सिटियों को एक षडयंत्र के तहत तबाह किया गया और यह काम उन लोगों ने किया जिन्हें शैक्षिक रूप से देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी दी गयी थी। अगर जिम्मेदारी की बात है तो इसके लिये वहां के छात्र नही बल्कि वहां के शिक्षक जिम्मेदार है। हम बात करते है देश के आक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविघालय की जहां से 1997 तक देश के सर्वोच्च परीक्षा में स्थान पा सकने वालों की संख्या 60 फीसदी थी या यूं कह लीजिये कि आज किसी भी मंत्रालय में सचिव पद पर बैठा अधिकारी इलाहाबाद का होगा कहना अतिशयोक्ति न होगी .
इस विश्वविघालय के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इस विश्वविघालय से अध्यक्ष बनने वाले सभी केन्द्रीय मंत्री बनते है या फिर प्रधानमंत्री बनते है ऐसा हकीकत में हुआ भी है देश के कई प्रधानमंत्री इसी विश्वविघालय से शिक्षा ग्रहण कर प्रधानमंत्री बने और देश को आगे ले गये। कई केन्द्रीय मंत्री बने किन्तु आज शायद ही कोई हो,पिछले दो दशक से यह एक भी छात्र नेता केन्द्रीय नेता बनना तो दूर प्रदेश में भी मंत्री नही बन पाया। इसका मुख्य कारण वहां के शिक्षकों का राजनीति में आना है। लम्बी पगार , गिनी चुनी क्लासें व मन माफिक छुट्टी और चुनाव लडने व वापस आकर पुनः काम पर लगने की आजादी ने इन पर नियंत्रण खो दिया जिससे विश्वविघालय पीछे चलता गया। इस विश्वविघालय से कई शिक्षक राजनेता बन गये और कई बड़े दलों की राजनीति कर रहें है। इलाहाबाद विश्वविघालय के अध्यक्ष को अब कोई जानता ही नही। यही हाल देश के अन्य नामी विश्वविघालयों का है ,जहां तक खामियों की बात है तो यह खामी हमारे नीति में है। जब भारत आजाद हुआ तो उस समय सर्वपल्ली राधाकृष्णन के सम्मान देने के लिये शिक्षक को यह व्यवस्था दी गयी थी , कि कोई शिक्षक चुनाव बिना इस्तीफा दिये लड सकता है और फिर कार्यकाल खत्म होने के बाद उसी पेशे में वापस जा सकता है लेकिन इसे बदलना चाहिये था किन्तु टालमटोल की नीति चलती रहे। इसे बदलना इसलिये भी आवश्यक है क्योंकि न तो अब राधाकृष्ण रहे और न ही शिक्षक, सभी शिक्षा माफिया है , सरकार से पगार लेते है और अपनी कोंचिग चलाते है उसमें पढने वाले बच्चे ही पास होते है बाकी सब फेल ।
बात निकली है तो यहंा यह भी बात बताना उचित होगा कि सरकार के पास अभी तक शिक्षा के लिये कोई नीति नही है । प्रदेश सरकारें तो इस मामले में काफी नकारात्मक रही है। केन्द्र सरकार को इस मामले पर एक नीति बनाने की कोशिश करनी चाहिये, किन्तु प्रयास अभी तक नही हुए है। शिक्षा किसी देश के उत्थान का माध्यम होता है और शिक्षक बनने के लिये कोई मापदण्ड या परीक्षा केन्द्रीय स्तर पर नही है। आईएएस , पीसीएस बनने के लिये शिक्षा की जरूरत है और बिना उसके कोई नौकरी नही कर सकता लेकिन शिक्षक जिसे तैयार करने की जिम्मेदारी दी गयी है उसके लिये कोई परीक्षा नही है। एक आयोग होना चाहिये और अधिकारी वर्ग से भी कठिन परीक्षा उसकी होनी चाहिये ताकि वह योग्य हो और योग्य समाज का गठन कर सके। लेकिन यहां भी लगता है कि राजनीति सब बिगाड देगी, पूरे देश में योग्यता पर अयोग्यता हावी है, शिक्षा कमाई का जरिया है और लोग उसके नाम पर लूट रहें है। हर साल डिग्रीयों की मियाद बढायी जा रही है , भला जो शिक्षक पहले दो साल में पढा लेते थे , अब वही शिक्षक उससे तीन गुना पगार लेने के बाद तीन साल में नही पढा पाये, अब चार गुना पगार वाले चार साल में पढाने का प्रयास कर रहे है हो सकता है कि जब पगार पांच गुनी हो जाय तो यही शिक्षक पांच साल में डिग्री कोर्स पूरा कर पाये।

One thought on “भारत में भी शैक्षिक आयोग का गठन होना चाहिये

  1. बहुत प्रासंगिक मुद्दा उठाया है। साधुवाद आपको।
    आर्थिक के साथ एक मुद्दा और भी है बच्चों का शारीरिक एवम् मानसिक उत्पीड़न ।
    कभी इस पर भी जरूर लिखें , निवेदन है आपसे।

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