सत्ता सर्वोपरि या देश, स्पष्ट करे कांग्रेस

नोटबन्दी का वार्षिकोत्सव सन्निकट है। देश की अर्थव्यवस्था इतने भयानक कैंसर से ग्रस्त थी जिसकी कीमोथेरेपी के रूप में नोटबन्दी का उपयोग किया गया। कैंसर के इलाज के दौरान मरीज को साइड इफेक्ट्स का कष्ट तो सहना ही पड़ता है और रोग से छुटकारा मिलने पर स्वा स्थ्य लाभ में कुछ समय अवश्य लगता है। लेकिन कांग्रेस को स्वस्थ होती देश की अर्थव्यवस्था से भी परेशानी है। अनाचार से अर्जित अपार सम्पत्ति पर नोटबन्दी ने जो करारा प्रहार किया उसका दंश उन सभी लोगों को व्यथित कर रहा है जो अवैध रूप से अकूत धन का संचय करके बैठे थे। वे एक ही झटके में शोषण से अर्जित धन के अचानक हाथ से निकल जाने का शोक अब तक मना रहे हैं। आतंकवाद के पोषण, भ्रष्टाचार द्वारा धन संग्रहण और देश की एकता के साथ समझौता करने वाले लोग अचानक सरकार की शुचिता को स्वीकार करने में कठिनाई का अनुभव कर रहे हैं।

कांग्रेस के राजकुंवर जो देश के एक प्रमुख राष्ट्रीय दल के भावी नेतृत्वकर्ता होने वाले हैं उनका अमेरिका में जाकर देश की अर्थव्यवस्था पर गैरजिम्मेदाराना ढंग से प्रमाणहीन आघात करना देश को पतन की ओर ले जाने की उनकी क्षुद्र मानसिकता का परिचायक है। उन्हें सम्भवत: इस बात का ज्ञान ही नहीं है कि यदि वे अमेरिका में जाकर देश की अर्थव्यवस्था को विनष्ट हुआ बताते हैं तो भारत में पूंजीनिवेश करने के लिए तत्पर विदेशी उद्यमी भारत में पूंजी निवेश क्यों करेंगे? नोटबन्दी के आघात से विक्षिप्त राजकुंवर को या तो सरकारी आंकड़ों को नकारना चाहिए या अपने वक्तव्य पर देश से क्षमा मांगनी चाहिए। मरीज के स्वस्थ होने की थोड़ा सी भी प्रतीक्षा उनके लिए अपरिहार्य है। सरकार ने अभी 2.11 लाख करोड़ रुपये बैंकों में डालने की घोषणा की है। क्या राजकुमार को इसके आगामी परिणामों का ज्ञान नहीं कि इससे देश में कितने बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा। क्या नोटबन्दी के कारण आतंकवाद का समर्थन करने वालों की आकांक्षायें तिरोहित होती नहीं दिखाई दे रही हैं। क्या देश में करदाताओं की संख्या में वृद्धि नहीं हुई? क्या राजकोषीय घाटा 3.2 प्रतिशत पर स्थिर रखने का सरकारी प्रयास सराहनीय नहीं है? यदि सरकार राजमार्गों के निर्माण पर 108 बिलियन डॉलर व्यय करने के लिए प्रतिबद्ध है तो क्या इससे रोजगार के नये अवसर सृजित नहीं होंगे?

वस्तुत: देश को दुर्बल करने के प्रयास में देश के अनेक प्रमुख राजनीतिक दल धर्मयुद्ध के लिए संकल्पबद्ध अभिमन्यु को चारों ओर से घेरकर पुन: आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गये हैं। और तो और, कभी उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री रह चुकीं बहन मायावती तो अधर्मयुद्ध का समर्थन करते हुए धर्म परिवर्तन की धमकी तक दे रही हैं। उन्हें यह ज्ञान नहीं कि धर्म की रक्षा करने पर ही धर्म व्यक्ति की रक्षा करता है (धर्मो रक्षति रक्षित:)। धर्म का त्याग करना अपने कर्तव्य का त्याग करना है। पलायन का इससे सरल मार्ग कोई नहीं है। यदि वह धर्म का परित्याग करना ही चाहेंगी तो देश के संविधान के अनुसार भी उनके मार्ग में कोई बाधा नहीं पहुँचा सकता। किन्तु यह भी सत्य है कि ऐसा करके वे देश की संस्कृति ही नहीं बल्कि अपने कुछ अनुयायियों के साथ भी धोखा कर रही हैं। पता नहीं उन्हें ऐसा क्यों प्रतीत होता है कि उनके धर्म परिवर्तन करने से दलितों को लाभ पहुँचेगा या देश के सभी दलित उनके पदचिह्नों पर चलते हुए धर्म परिवर्तन कर लेंगे। पूरे प्रदेश का कोई भी दलित क्या इतना धनाढ्य हो पाया है जितनी धनवान स्वयं बहनजी हैं? मुख्यमन्त्री रहते हुए क्या उन्होंने प्रदेश में दलितों के उत्थान का कोई भी ऐसा कार्य किया जिसका उल्लेख किया जा सके? क्या दलित उनके शासनकाल में दलित अवस्था से उबर पाये? अब जब देश में सबको समान अवसर देने वाली सरकार आ चुकी है तो उन्हें स्वयं को दलित नेता की छवि धूमिल होती दिखाई दे रही है।

दूसरी ओर चुनाव आते ही राहुल बाबा की भगवद् भक्ति भी परवान चढ़ने लगी है। जो व्यक्ति कभी मन्दिर की दहलीज पर भी नहीं चढ़ा हो उसे आज मन्दिरों की भी सुध आने लगी है। किन्तु कांग्रेसी घोटालों का पाप मन्दिरों में जाने पर भी नहीं धुल सकता। इसके लिए शुद्ध हृदय से पश्चात्ताप करते हुए कुछ दिन देश के हित में कार्य करना होगा। देश विरोधियों को गले लगाने से उन्हें न तो सत्ता ही मिलने वाली है और न ही आत्मिक शान्ति।

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