कहीं आर्थिक रूप से कमजोर तो नही रहा है विश्व व्यापार संगठन

आज जैसे चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका के लिए चुनौती बनी हुई है, वैसे 1980 के दशक में जापान की अर्थव्यवस्था बनी हुई थी। लग रहा था जापान जल्दी ही अमेरिका को पछाड़ देगा। पर वह चीन की तरह सैनिक शक्ति नहीं था। अमेरिका ने जापान पर आरोप लगाना शुरू किया कि उसने रणनीति बना कर अपनी मुद्रा को कमजोर बनाया है, जिससे जापान से निर्यात सस्ता हो और जापान में आयात महंगा हो। अतः उसे अपनी मुद्रा को मजबूत करना होगा। अंत में अमेरिका के न्यूयार्क शहर के प्लाजा होटल में एक समझौता हुआ, जिसमें जापान की मुद्रा को मजबूत करके 235 येन का 1 डॉलर से बढ़ाकर 150 येन में 1 डॉलर कर दिया गया। आगे 1990 आते आते 80 येन में 1 डॉलर हो गया। वहां अगर कोई भारतीय नेता रहा होगा, तो येन के 150ः से अधिक मजबूत हो जाने के लिए उसने होली , दिवाली एक साथ मनायी होगी ! पर येन के मजबूत हो जाने का क्या परिणाम हुआ। जापान में एक आर्थिक बुलबुला पैदा हुआ और उसके फूटने से जापान की अर्थव्यवस्था में ऐसा ठहराव आ गया कि उसके बाद उसे कोई अमेरिका का प्रतिद्वंदी अर्थव्यवस्था नहीं कहता है। जापान में उस दशक को आर्थिक दृष्टि से ‘गवांया दशक’ कहा जाता है।जापान के येन के मजबूत होने से अगर उसकी अर्थव्यस्था बैठ गयी तो भारत किस आधार पर कहता है कि  “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत !”

मॉर्गन स्टैनले नामक संस्था के अर्थशास्त्री ने 2013 में विश्व की 5 अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण भंगुर अर्थव्यवस्था किया था। उसमें ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की और दक्षिण अफ्रीका के साथ भारत को भी शामिल किया था। भंगुर अर्थव्यवस्था कहने के लिए उन्होंने कारण दिया था कि इन देशों को अपना व्यापार घाटा और विदेशी देनदारियां चुकाने के लिए विदेशी निवेश पर अति निर्भर रहना पड़ रहा है। उसके बाद 2014 में सरकार केंद्र में आयी, और देश को पहले से अधिक विदेशी निवेश पर निर्भर होना पड़ रहा है। 2018-19 में व्यापार घाटा 150 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया था, इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत!” के सिद्धान्तवादियों की मानसिकता ने देश की अर्थव्यवस्था को कितना अधिक भंगुर अवस्था तक पहुंचा दिया है।उपरोक्त 5 तथ्यों के प्रकाश में अब शीर्षक में भारतीय नेता द्वारा लागू आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम पर पुनः विचार करते हैं। कुछ पुनरुक्तियाँ होंगी, पर इसे फिर से समझने की कोशिश करते हैं।
भारत के रुपये का बाजार भाव इस समय लगभग 70 रुपये में 1 डॉलर है। रिजर्व बैंक के अनुसार जिन 6 प्रमुख देशों के साथ भारत का व्यापार होता है, उन देशों की मुद्रा के साथ तुलना करने पर भारतीय रुपये का वास्तविक मूल्य 120ः था। अर्थात रुपये के बाजार भाव उसके वास्तविक मूल्य  से 20ः अधिक था। 70 रुपये में 1 डॉलर बाजार भाव था तो वास्तविक भाव हुआ 84 रुपये में 1 डॉलर ! अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर किसी मुद्रा का बाजार भाव उसके वास्तविक भाव से 5ः कम , अधिक हो तो वह स्वस्थ दशा मानी जाती है। पर भारत का रुपया स्वस्थ दशा से कहीं अधिक महंगा बिक रहा है ! विचारकों के अनुसार रुपया मजबूत है, तो देश के हित में है । पर देश के जाने  माने अर्थशास्त्री इससे सहमत नहीं हैं। वे आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने के लिए रुपये का उसके वास्तविक मूल्य से नीचे गिरना लाभदायी मानते हैं। आपने ऐसी सलाह देने वाले रघुराम राजन, जगदीश भगवती, अरविंद पनगढ़िया, शंकर आचार्य, राजवाड़े आदि अनेक अर्थशास्त्रियों के लेख समाचार पत्र  पत्रिकाओं में पढ़े होंगे। पर उनकी नेक सलाह का सरकार में हावी विचारकों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।रुपया का बाजार भाव 2014 से लगातार वास्तविक भाव से अधिक बना हुआ है। इसके कारण आयात सस्ता हो गया है, और निर्यात महंगा। रुपये के बाजार भाव के अधिक होने से आयात सस्ता हो गया है, जिससे देश में अनेक वस्तुओं का उत्पादन स्पर्धा में नहीं टिक पा रहा है, इसलिए उन्हें बनाने वाली कंपनियां या तो बंद हो रहीं हैं या बीमार पड़ गयीं हैं। इससे देश मे रोजगार घट रहा है। इसीप्रकार अन्य मुद्राओं के सामने रुपये के मजबूत होने से निर्यात महंगा हो गया है। अतः अन्य देशों से हमारे निर्यातक स्पर्धा नहीं कर पा रहें हैं। उस कारण भी निर्यात करने वाले कारखाने बीमार या बंद हो रहें हैं। जिससे रोजगार भी घट रहा है। सस्ता विदेशी माल के खपत से देश का सकल घरेलू उत्पाद  बढ़ते हुए दिख रहा है पर रोजगार घट रहें हैं। इसीको रोजगार रहित वृद्धि कहा जा रहा है।

जब निर्यात कम है और आयात अधिक है तो सामान्य अर्थशास्त्र के नियमानुसार रुपये का बाजार भाव उसके वास्तविक भाव से नीचे होना चाहिए था, पर भारत में 2014 से तो उल्टा दिखाई दिखाई दे रहा है। रुपया अपने वास्तविक मूल्य से बाजार में महंगा है। रुपये का अपने वास्तविक मूल्य से मजबूत बने रहना, वांछित, अवांछित विदेशी निवेश का परिणाम है, या अमेरिका, यूरोपीय देश, चीन आदि द्वारा प्रारम्भ नए मुद्रा युद्ध का परिणाम है, पर रुपया का मजबूत बने रहना देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार के मुद्रा युद्ध से अनभिज्ञ कुछ र्पािर्टयों के विचारक अपने ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ के कारण रुपये की मजबूती को अपनी विजय मान रहे हैं।अमेरिका यूरोप चीन आदि आर्थिक महासत्ताओं द्वारा मौद्रिक शिथिलता द्वारा जारी नए मुद्रा युद्ध का परिणाम है भारत में रुपया का मजबूत होना। भारत जैसे विकासशील देशों की मुद्रा मजबूत होने के कारण चीन आदि से सस्ते में आयात हो रहा है और भारत से निर्यात नहीं हो पा रहा है। ऊपर से विदेशी निवेश करने का उपकार और जता रहे हैं। और हमारे ‘ रुपया मजबूत, तो देश मजबूत ‘ वाले आत्ममुग्ध हैं कि हमारा रुपया भी मजबूत है और अधिक से अधिक विदेशी निवेश लाने में भी सफल हो रहें हैं !

भारतीय नीति निर्माताओं  की नीति “रुपया मजबूत तो देश मजबूत” के कारण से हो रहे दुष्परिणामों को दूर करने के उपायों को समझने से पहले निम्न बातें स्पष्ट हो जाना आवश्यक है। भारत अन्य देशों की भांति विश्व व्यापार संगठन  का सदस्य है। जब ऐसा नहीं था, तब हम आयात पर अपनी सुविधा के अनुसार आयात शुल्क लगा सकते थे। उस जमाने में 300 से 500% तक भी आयात शुल्क लगाते थे। पर अब विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने से अधिक आयात शुल्क नहीं लगा सकते। अतः रुपये की स्थिर दर या रुपये का मजबूत होना अब देश के आयात को नियंत्रित करने के खिलाफ जाता है। जैसे आजकल केंद्र में कुछ नेता की मजबूत रुपये की नीति के कारण हो रहा है। दूसरा आज की अर्थव्यवस्था, पश्चिम में विकसित अर्थशास्त्र के अनुसार चलती है। भारत भी लगभग उसी अर्थशास्त्र के नियमों को पालन करता है। पर अगर 99% उनके अर्थशास्त्र के नियम पाले, पर रुपये के बाजार में मूल्य को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की, तो वह बात हमारे खिलाफ भी जा सकती है, जैसे आजकल नेताओं के मजबूत रुपये की नीति हमारे देशहित के खिलाफ जा रही है।
एक बात और आंतरिक बाजार में किसी वस्तु का बिक्री मूल्य उसके उत्पादन लागत पर निर्भर होता है, पर निर्यात करते समय उत्पादन लागत के साथ ही उस देश की मुद्रा का मूल्य भी उसके बिक्री मूल्य को प्रभावित करता है। अगर कोई मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य से अधिक मजबूत हो तो उससे उस देश से होने वाला निर्यात महंगा हो जाता है, जैसे आजकल हमारे वित्त मंत्रालय की नीतियों के कारण हो रहा है। हम यहां पर रुपये के बाजार भाव को उसके वास्तविक भाव तक गिरने देने की वकालत कर रहें हैं, रुपये का उससे अधिक अवमूल्यन की सलाह नहीं दे रहें हैं। अतः विश्व का अन्य कोई देश हम पर मुद्रा घपला मुद्रा युद्ध का आरोप भी नहीं लगा सकता है। दुर्भाग्य से अधिकांश नेता रुपये को वास्तविक मूल्य तक नीचे गिरने देने की सलाह को रुपये का अवमूल्यन  करने की सलाह मानने की गलती करते हैं।वैसे रुपये का अपने वास्तविक मूल्य से मजबूत होने के आयात-निर्यात के अलावा और क्या परिणाम होते हैं? पहले रुपया के मजबूत होने के सकारात्मक का आभास करने वाले परिणाम कुछ परिणाम। भारत पेट्रोलियम पदार्थों के लिए 80% से अधिक आयात पर निर्भर है। इसलिए रुपया मजबूत होने से पेट्रोलियम सस्ता मिलता है। पेट्रोलियम के सस्ता मिलने का अप्रत्यक्ष दुष्प्रभाव यह होता है कि देश में उसके विकल्प उससे महंगे बने रहते हैं, इसलिए हमारी आयात पर निर्भरता बनी रहेगी। रुपया मजबूत रहने से देश द्वारा लिए विदेशी कर्ज रुपये के बाजार भाव से नहीं बढ़ता। पर आयात सस्ता और निर्यात महंगा होने से देश का व्यापार घाटा हमेशा बढ़ते रहता है। अतः रुपये के मजबूत रहने से जो विदेशी कर्ज नहीं बढ़ता है, वहीं व्यापार घाटे को भरने के लिए हमारी विदेशी निवेश पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। पहले व्यापार घाटे को पाटने के लिए विदेशों से ऋण लिया था 3 से 5% ब्याज पर, और अब रुपये के मजबूत होने से बढ़े व्यापार घाटा को पाटने के लिए अधिकाधिक विदेशी निवेश बुला रहें हैं। विदेशी निवेश आएगा 10 से 15% लाभांश की आशा में ! तो भारत के अधिक हित में क्या है, रुपये के मजबूती से बढ़ा व्यापार घाटा या रुपये के कमजोर होने से घटने वाला व्यापार घाटा ? इसका विचार कौन करेगा ?

इन सब बातों के आधार पर हमें अमेरिका जैसे देशों द्वारा प्रारम्भ अभिनव मुद्रा युद्ध को पहचानना चाहिए, जिससे देश में आवश्यकता से अधिक विदेश निवेश हो रहा है, उस अधिक विदेशी निवेश के कारण हमारे देश की मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य पर बाजार में बिक रही है। इसप्रकार रुपये के मजबूत होने से आयात सस्ता हो गया है और निर्यात महंगा हो गया है। आयात सस्ता और निर्यात महंगा होने के कारण देश में पुराने उद्योग बीमार हो रहें हैं या बंद हो रहें हैं और नए उद्योग नहीं खुल पा रहें हैं।उपरोक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रख कर नेताओं को “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत ” वाली मानसिकता से अर्थव्यवस्था पर हो रहे घातक दुष्परिणामों को समझ सकते हैं। देष के विचारक भी उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में अपनी आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करें और देश में गहरा रहे आर्थिक संकट से देश को उबारने में पहल कर सकते हैं। अमेरिका आदि द्वारा प्रारम्भ या तथाकथित नेताओं के “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत” की मानसिकता के कारण या दोनों कारणों से आज भारत की मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य से महंगी बिक रही है। भारत पर आए आर्थिक संकट को दूर करने के लिए रुपये को अपने वास्तविक मूल्य के आसपास तक नीचे गिरने देने की रणनीति बनाना और उस अमल करना ही एकमेव उपाय है। रुपये को अपने वास्तविक मूल्य तक नीचे गिरने देने से निम्न सकारात्मक परिणाम होंगे। आयात महंगा होगा, जिससे अनेक वस्तुओं का देश में उत्पादन स्पर्धा में टिकने लायक हो जाएगा। अतः देश में आयात कम होने के साथ रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। अभी रुपया मजबूत होने कारण आयात सस्ता है, उस आयात के कारण देश में नहीं,विदेशों में रोजगार बढ़ रहें हैं। रुपया सस्ता होने से निर्यात भी सस्ता हो जाएगा। अतः अन्य देशों की अपेक्षा भारत की अनेक वस्तुएं सस्ती हो जाने से निर्यात बढ़ेगा, उस बढ़ते निर्यात के लिए देश में उत्पादन बढ़ेगा। उस उत्पादन के लिए देश में रोजगार भी बढ़ते जाएंगे। रुपये के अपने वास्तविक मूल्य तक कमजोर होने से आयात घटेगा और निर्यात बढ़ेगा, जिससे व्यापार घाटा कम होगा। अतः कम घाटे को भरने के लिए कम विदेशी पूंजी निवेश की आवश्यकता पड़ेगी। अतः अवांछित विदेशी पूंजी निवेश को स्वीकारने की लाचारी दूर होगी।

आने वाले कुछ वर्षों में अत्यधिक विदेशी निवेश के कारण देश उनके जाल में फंस जाने की संभावना भी बलवती हो रही है। संकट की गंभीरता के कारण अति विस्तार से सब बातों को रखना पड़ा है। सभी प्रबुद्धजनों से इस विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त करने का अनुरोध है।

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