जो जेएनयू में हुआ वो दुर्भाग्यपूर्ण था ।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की गिनती देश के श्रेष्ठ उच्च शैक्षनिक संस्थानों में की जाती है । यहां की पढ़ाई व माहौल अन्य विश्वविद्यालयों से अलग है। देश के हर कोने से छात्र यहां उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते हैं। एक तरह से पूरे भारत की विविधता को यह अपने में समाए हुए शैक्षनिक संस्थान है। विविध विचारों का होना यहां स्वभाविक है। हर छात्र को अपने विचार की अभिव्यक्ति का अधिकार है। शैक्षनिक संस्थानों में अभिव्यक्ति की आजादी होनी जरूरी है। इसमें दो राय नहीं है। कोई भी सरकार उनके इस अधिकार को छीन नहीं सकती है।

हालांकि इन दिनों यहां के छात्र और कुछ शिक्षक अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर केंद्र सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। दरअसल, यह जेएनयू कैंपस में 9 फरवरी और उसके बाद जो देश हित के खिलाफ नारे लगे, शायद उससे ध्यान हटाने की कोशिश है। यह कुछ लोगों की सोची-समझी रणनीति भी हो सकती है।

भारत में शैक्षनिक संस्थाओं में अभिव्यक्ति की आजादी कभी भी विवाद का मसला नहीं रहा है। अपने विचार रखने और दूसरे के विचारों को सुनने की अपनी अलग परंपरा है। पुरातन व्यवस्था है, जिसमें तर्क-वितर्क यहां तक कि कुतर्क को भी स्थान दिया जाता है। भारतीय दर्शन का विकास इसी परंपरा से हुआ है। इस पर किसी एक का अधिकार नहीं है। पूरे समाज और संसार को इससे लाभ मिला है। छात्र एवं शिक्षक  इसके विकास को सही तरीके से समझने की कोशिश करेंगे, तो उन्हें इस पूरे विवाद को सही परिप्रेक्ष्य में देखने का नजरिया मिलेगा। तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे उच्च शिक्षा के केंद्र भारत के आदर्श रहे हैं।

शंकराचार्य और बिहार के मंडन मिश्र के बीच हुई वार्ता पर ध्यान देने की जरूरत है। एक धुर दक्षिण के तो दूसरे हिंदी भाषी क्षेत्र बिहार के। भाषा की बाध्यता के बावजूद उन दोनों ने जिस मर्यादा का उदाहरण दिया है वह अनुकरणीय है। देश के चारों कोनों में चार पीठ की स्थापना शंकराचार्य की देन है। सभी केंद्र कई धर्म-संप्रदायों के विविध विचारों के आदान प्रदान बगैर किसी शोर-शराबे के करते रहे हैं। दरअसल, हर विचार के दो पहलू होते हैं। सकारात्मक व नकारात्मक। इसे पहचानने का ज्ञान हमें शिक्षक से मिलता है। शिक्षकों की यह जिम्मेदारी होती है कि हर विचार को देश और काल के सापेक्ष छात्रों में  उठ रहे जिज्ञासाओं को सही दिशा दे और उस विचार को पुष्पित पल्लवित करे।

जेएनयू में जो कुछ हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए इस प्रकार का व्यवहार अपेक्षित नहीं है। भूले-भटके लोगों को लोकतांत्रिक तौर तरीकों से परिचित कराना एवं उसके प्रति आदर का भाव जाग्रत करने का काम शिक्षण संस्थाओं में होना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी निश्चित सामाजिक और लोकतांत्रिक दायरे में ही दी जा सकती है। किसी को अपनी बात रखने का मतलब यह नहीं है कि गाली-गलौच के साथ रखें। भारत की अंखडता और संप्रभुता को तोड़े। इस प्रकार की बातों को बर्दाश्त करने का कोई सवाल ही नहीं उठता है। खुद शिक्षण संस्थाओं को सख्त कदम उठाने चाहिए। सरकार को भी समझदारीपूर्ण तकरीके से इसका हल करना चाहिए। ताकि भविष्य में इसकी पुनरावति न हो। इस प्रकार के विचारों को बढ़ावा देने की कोई कोशिश न करे।

राजनीतिज्ञों की बात तो समझ में आती है। वह चीजों को राजनीति के नजरिये से देखते हैं। राजनीति उनके लिए मुख्य है। लेफ्ट पार्टियां एवं कांग्रेस की ओर से समर्थन में आना स्वभाविक है। वह सत्ताधारी पार्टी का विरोध करेंगे। वह अपनी मर्यादा का ध्यान नहीं रखेंगे। हालांकि उनसे अपेक्षा की जानी चाहिए। राजनीतिक स्तर गिर सकता है तो कल उठ भी सकता है। लेकिन जब शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति के ध्यान से फैसले होंगे, तो पूरी पीढ़ी पर असर पड़ेगा। आगे की पीढ़ी को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। राजनीतिक पार्टियों की अपनी विचारधारा है। वह अपनी विचारधारा को पोषित करे; लेकिन शिक्षण संस्थानों को विचारधारा के संकीर्ण दायरे में बांटने की कोशिश नहीं करें।

मुझे याद है हमारे श्रद़धेय प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी कहते थे कि हर विचारक को अपना विचार सर्वोपरि लगता है। जबकि हकीकत यह है कि जहां उनके विचार खत्म होते हैं, वहीं से दूसरे विचारकों के विचार पैदा होते हैं। शिक्षण संस्थाएं, विचारकों व उन विचारों को समय की कसौटी पर कसे जाने का, आकलन करने का स्थान है। जेएनयू जैसे उच्च अध्ययन का केंद्र यह काम वर्षों से करता आया है। इसकी स्थापना इसी को ध्यान में रखकर की गई थी। विविध विचारों के एक साथ अध्ययन का केंद्र आज राजनीति का केंद्र बन गया है। क्योंकि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों को अब संघर्ष की आदत नहीं रही। वे कहीं भी हल्ला हंगामा हो रहा हो, वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के चक्कर में लगे रहते हैं। इस तरह की राजनीति से उन्हें किसी तरह का लाभ मिलने वाला नहीं है।

राजनीति का संकीर्ण दायरा शिक्षण संस्थाओं के लोग अगर स्वीकार करते हैं, तो गलत है। एक वार्तालाप में अटलजी ने कहा था कि हमें प्रोफसरों की नियुक्ति में कभी भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अगर हम यहां हस्तक्षेप करते हैं, तो पूरे राष्ट्र के साथ धोखा होगा। शिक्षण संस्थाओं के साथ न्याय नहीं होगा। भाजपा का यह आदर्श है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर प्रश्न किए जा रहे हैं। उनका चुप रहने का अधिकार है। किस बात पर जवाब दें और किस पर नहीं यह उनके विवके पर निर्भर करता है। विजेता वह नहीं है जो हरेक के दरवाजे पर जाए और कहे कि बाहर निकलो हम तुम्हें पराजित कर देंगे। विजेता का निर्णय सही मंच पर होता है। जनता चुनाव में निर्णय दे चुकी है। अब उस निर्णय के अनुसार सरकार को काम करने दिया जाना चाहिए। अडंगा लगाने से कोई काम नहीं चलेगा। सरकार सबकी है। आपकी और हमारी भी।  इसे अपना काम करने की आजादी मिलनी चाहिए। देशद्रोह को हर दिन परिभाषित नहीं किया जाता है। इसे कोई किसी पर थोप नहीं सकता है। कानून में इसके मानदंड निश्चित हैं,  जिसके आधार सरकारी एजेंसियां करती हैं कि कौन सा कार्य देशद्रोह के अंतर्गत आता है और कौन नहीं। संसद के सदस्यों को चाहिए कि सरकार के पक्ष में अपना समर्थन दे। सरकार की असफलता एक पार्टी की नहीं होती है। सबका साथ सबका विकास भाजपा के लिए सिर्फ नारा नहीं है, बल्कि वह इसे जीना चाहती है। नीति निर्धारण से कार्यान्वयन तक सभी से सहयोग व समर्थन की अपेक्षा करती है।

 

 

 

 

 

 

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