क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी और ब्राह्मण समर्थक थे?

आज भगवान परशुराम जी का जन्मदिन है। आज अक्षय तृतीया भी है। वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया यानी परशुरामजी का जन्मदिन माना जाता है। हिन्दुओं के सालभर के साढ़े तीन दिवस के शुभमुहूर्त में से एक पूर्ण दिवस का शुभ मुहूर्त दिवस। अक्षय तृतीय त्रेतायुग के आरंभ का दिन माना जाता है।

अपने यहां कालचक्र चार भागों में विभाजित किया गया जिसे युग कहते हैं। इसमें सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग एवं कलियुग है। वर्तमान में कलियुग चल रहा है।
परशुराम को हम भगवान कहते है। वे विष्णु के छठे अवतार के रूप में त्रेतायुग में अवतरित हुए थे। परशुराम के अनेक नाम हैं। इन्हें रामभद्र, भार्गव, भृगुपति, भृगुवंशी, जामदग्नेय, के नाम से भी जाना जाता है।

रामायण काल त्रेतायुग का माना जाता है। और द्वापर युग के दौरान महाभारत हुआ । महाभारत युद्व करीब 5000 वर्ष पूर्व हुआ । यह द्वापरयुग के अंत में लड़ा गया। राम रावण युद्व आज से करीब 6000 वर्ष पूर्व यानी त्रेतायुग के अंत में लड़ा गया। परशुराम के नेतृत्व में हैहयों के विरूद्ध लड़ा गया युद्व करीब 7000 वर्ष पूर्व का कालखंड था। इसका अर्थ है कि परशुराम जी की सक्रियता का समय हजारों साल रहा

अमर हैं परशुराम
अपने यहा कुछ महान दैवीय महापुरूषों का वर्णन मिलता है जिन्हें आज भी अमर माना जाता है।
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो,हनुमांष्च विभीषणः।
कृपः परशुरामष्च सप्र्तैते चिरजीविनः।।
अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम अमर हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम वर्तमान समय में भी कहीं तपस्यालीन हैं।

परशुराम दो शब्दों से मिल कर बना हुआ है। परशु अर्थात् ’कुल्हाड़ी‘ तथा ’राम‘ इन दो शब्दों को मिलाने पर ’कुल्हाड़ी‘ के साथ ’राम‘ अर्थ निकलता है। यानी पुरूषार्थ और मर्यादा।

परशुराम जमदग्नि ऋषि और रेणुका माँ के पांचवें और अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। परशुराम ने अधिकांश विद्यायें अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीं। वे पशु पक्षियों की भाषा तक समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। इनकी आरंभिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक ़ऋषि के आश्रम में हुयी। वैसे महर्षि विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को भी शिक्षा-दीक्षा प्रदान की थी। इन्होंने महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रम्हर्षि कश्यप से विधिवत् अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त किया था। वे शस्त्र विद्या के महान गुरू थे। केरल के मार्शल आर्ट कलरीपट्टृ की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरू थे।

भगवान परशुराम ने अपनी घोर तपस्या से भगवान शंकर से अमरत्व का वरदान तथा उनसे एक चमत्कारी अजेय शस्त्र ’परशु‘ को भी प्राप्त कर लिया था। वह परशु भगवान शंकर के त्रिशूल, विष्णु के चक्र एवं इन्द्र के वज्र जैसा ही चमत्कारी था। परशुराम योग, वेद, नीति में पारंगत थे। ब्रह्मास्त्र समेत विविध, दिव्यास्त्रों के संचालन में भी पारंगत थे।

हैहयवंशी क्षत्रिय राजाओं का विनाश

हैहयवंशी क्षत्रिय एक राजा हुये थे जिनका नाम था सहस्त्रार्जुन। उनकी राजधानी थी नर्मदा नदी के किनारे बसा माहिष्मती नामक नगर जो कि आज महेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। सहस्त्रार्जुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान प्राप्त था जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्त्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था। सहस्त्रार्जुन ऋषि मुनियों तथा उनके आश्रमों को कष्ट दिया करता था।

अर्जुन कार्तवीर्य उर्फ सहस्त्रार्जुन का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा नदी से लेकर उत्तर में हिमालय तक तथा पश्चिम में द्वारका से लेकर पूरब में गंगा तट तक था। सहस्त्रार्जुन बहुत ही बलशाली, शक्तिशाली आततायी राजा था। पूरे राज्य के लोग इससे आतंकित एवं भयभीत थे।

परशुराम के पिता जमदग्नि का आश्रम बागपत जिले में बूढ़ामहादेव के पास था। सहस्त्रार्जुन उनके आश्रम से एक गाय जिसे कपिला कामधेनु कहते थे, को बलपूर्वक ले गया। जब परशुराम को यहा बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने की सोची ओर सहस्त्रार्जुन से युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएं कट गयीं और वह माारा गया।

बाद मे सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध लेने के लिए परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माता रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिता में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने अनाचारी, अत्याचारी हैहयवंशीय के पुत्रों को मार डाला। कुछ लोगों के मतानुसार यह युद्ध 21 दिनों तक चला। अप्रचार यह होता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रिय राजाओं का नाश किया।

श्री परशुराम को ब्राह्मण लोग अधिक मानते हैं कुछ लोग ऐसा दुष्प्रचार करते हैं कि वे क्षत्रिय विरोधी थे। श्री परशुराम या श्रीराम का अवतार किसी जाति विशेष के लोगों के विरूद्व उनके अस्तित्व को समाप्त करने के लिए नहीं हुआ था और न ही उन्होंने किसी जाति विशेष का कभी विरोध ही किया था अथवा न हि किसी शक्तिशाली व्यक्ति के विरूद्ध कभी कोई अभियान ही चलाया था। श्री राम ने भी महाप्रतापी रावण का वध किया था। जो कि शंकर भगवान का निःस्सीम उपासक था, वेदपाठी, तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी लिखी रावण संहिता प्रसिद्ध है। शक्तिशाली ब्राह्मण होते हुए भी वह घोर अन्यायी, , अत्याचारी, अहंकारी, दंभी तथा राक्षसी प्रवृत्ति के कारण उसका वध हुआ। उसकी व उसके परिवार की हत्या करके भगवान ब्राह्मण विरोधी या हत्यारे नहीं कहलाये। ठीक उसी प्रकार से हैहयवंशी सहस्त्रबाहु व उनके वंशजों की हत्या करके परशुराम जी क्षत्रिय विरोधी नहीं माने गये। यदि वे क्षत्रिय विरोधी होते तो राजा जनक व राजा दशरथ अथवा उस समय के अनेक वीर क्षत्रिय राजाओं के खिलाफ भी युद्ध कर सकते थे। यही नहीं सीता स्वयंवर मे ंसैकड़ों क्षत्रिय राजा भाग लेने आये थे तो क्या परशुराम जी ने उनसे युद्ध किया। परशुराम जी आतताइयों व शोषण प्रवृत्ति के लोगों के ही विरोधी थे।

परशुराम के शाष्त्र व शस्त्र विद्या की निपुणता की धाक का प्रमाण तो यह था कि राजा जनक की सभा मे ंजब वे आये तो सब राजाओं ने अपने अपने पिता का नाम लेकर उनको प्रणाम किया था। और राजा जनक ने स्वयं अपनी पुत्री सीता को बुलवाकर उनको प्रणाम करवाया। ऋषि विश्वामित्र जी ने भी दोनों भाइयों श्रीराम व लक्ष्मण को साथ लेकर उनका अभिवादन किया था। सीता स्वयंवर में उन्होंने शिव के धनुष्य को तोड़ने को अपने आराध्य गुरूदेव भगवान श्री शंकर का अपमान समझा था। किन्तु जब संवाद हुआ तब उन्हें यह स्पष्ट होने लगा कि लंकापति रावण का संहार करने हेतु रामावतार हो चुका है तो उन्होंने अपने सन्ताप को भुलाकर वहीं से पुनः तप करने हेतु द्रोण प्रर्वत पर चले गये।

महाभारत काल में आचार्य परशुराम का उल्लेख आया है। उन्होंने शान्तनु गंगापुत्र युवराज देवव्रत, जो बाद में भीष्म कहलाये थे, को शस्त्र तथा शास्त्र दोनों की शिक्षा दी थी।कौरव सभा में कृष्ण का समर्थन करने में परशुराम ने संकोच नहीं किया। कर्ण को श्राप उन्होंने इसलिए नहीं दिया कि कुंतीपुत्र किसी विशिष्ट जाति से संबंध रखते थे बल्कि उनके असत्य भाषण करने के दंडस्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था।

परशुराम शास्त्र तथा शस्त्र दोनों के मर्मज्ञ थे। किन्तु शस्त्र ज्ञान को विशेष महत्व देते रहे। वह शास्त्रों में निपुण व वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों को शस्त्रों के ज्ञान के लिए भी प्रेरित करते रहे।

परशुराम जी ने रामायण और महाभारत काल में तप साधन एवं शास्त्र -शस्त्र विद्याओं के प्रचार प्रसार व शिक्षण-प्रशिक्षण में लगेे रहे। उन्होंने अन्याय व अत्याचार के मूकदर्शकों को या उसको अनदेखी करनेवालों को भी अन्यायी व अत्याचारी की संज्ञा दी।

श्रीराम – श्रीकृष्ण जैसा ही कार्यक्षेत्र भारत के अनेक भूभाग पर श्री परशुराम जी का रहा।
हम जानते हैं कि श्रीराम का जन्म अयोघ्या जो आज के उत्तर प्रदेश में हुआ । विवाह माता जानकी के साथ मिथिलांचल (बिहार) और वर्तमान जनकपुर (नेपाल ) में हुआ था। वनवास का अधिकतम समय चित्रकूट (मध्यप्रदेश) तथा पंचवटी ( नासिक ,महाराष्ट्र) में हुआ। और राम -रावण युद्ध आज के श्रीलंका की धरती पर हुआ।

श्री कृष्ण भगवान का जन्म मथुरा (उ.प्र.) में , नगरी बसाई द्वारका (गुजरात) मे, युद्व में पांडवों की मदद की कुरूक्षेत्र (हरियाणा) में , आतताई राजाओं से युद्व किया आसाम में । वैसे ही भगवान परशुराम के पिता जी जमदग्नि का आश्रम आज के जमनियां स्थान गाजीपुर जिला उत्तरप्रदेश में बाद में उन्होंने आश्रम नर्मदा नदी के तट पर भी बसाया। कार्तवीर्य अर्जुन के त्रास के कारण बड़ौत (उत्तरप्रदेश) में पुनः आश्रम बसाया। परशुराम जी ने युद्ध किया महेश्वर (म.प्र.) में, साधना और तपस्या किया द्रोण पर्वत (उत्तराखण्ड) तथा महेन्दगिरि पर्वत (उड़ीसा) में । कहते हैं कि आज का कोंकण, गोवा और केरल प्रदेश में अनेक गांव बसाने का कार्य श्री परशुराम जी ने ही किया। भगवान परशुराम को अपनी माता की हत्या के पाप से मुक्ति जहां प्राप्त हुयी वह प्रभु कुठार यानी परशुराम कुण्ड है जो आज अरूणाचल प्रदेश के लोहित जिले में स्थित है। उन्होंने अपने शस्त्र परशु का त्याग गोवा के समुद्र में किया।

हिंसा-अहिंसा का समन्वयक

अनाचार को समाप्त करने की उदात्त भावनाओं से प्रेरित होकर यद्यपि परशुराम जी को हिंसात्मक नीति अपनानी पड़ी हो पर उन्होंने इस कभी अनुचित न समझा। शान्ति की स्थापना के लिए प्रयुक्त हुयी अशान्ति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता। स्वार्थ और अन्याय के लिए आक्रमण वर्जित है पर यदि आत्मरक्षा या अनाचार की रोकथाम के लिए प्रतिरोधात्मक उपाय के समय मे हिंसा अपनानी पड़े तो इसे न अनुचित माना जाता है और न ही हेय।
परशुराम जी शास्त्र और धर्म के गूढ़ तत्वों को भलीभांति समझते थे इसलिए आवश्यकता पड़ने पर कांटे से कांटा निकालने, विष से विष मारने की नीति के अनुसार ऋषि होते हुए भी उन्होंने धर्म रक्षा के लिए सशस्त्र अभियान आरम्भ करने में तनिक भी संकोच नहीं किया।
जब उद्देश्य पूर्ण हो गया तो उन्होंने अनावश्यक रक्तपात को एक क्षण के लिए भी जाारी रखना उचित न समझा । फरसे को उन्होंने समुद्र में फंेक दिया, जो राज्य छीने थे वह सारी भूमि महर्षि कश्यप को दान कर दी ताकि उन प्रदेशों में सुराज्य स्थापना की व्यवस्था की जा सके।
जन कल्याण के लिए परशुराम जी ज्ञान और विग्रह दोनों ही आवश्यक मानते थे। नम्रता और ज्ञान से सज्जनों को और प्रतिरोध तथा दण्ड से दुष्टों को जीता जा सकता है, ऐसी उनकी निश्चित मान्यता थी। इसलिए वे उभय पक्षीय संतुलित नीति लेकर चलने से ही धर्म रक्षा की सम्भावना स्वीकार करते थे। उनकी मान्यता उनके शब्दों में इस प्रकार हैः-
अग्रतःचतुरो वेदः पृष्ठतः सषरंधनुः।
इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि।।

अर्थात ’मुख‘ से चारों वेदों का प्रवचन कर के और पीठ पर धनुष बाण लेकर चला जाए।
ब्रह्मशक्ति और शस्त्रशक्ति दोनों ही आवश्यक है। शास्त्र से और शस्त्र से भी धर्म का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए।
सज्जनता और दुष्टता की अति कहीं भी नहीं होनी चाहिए। दुष्टों के साथ सज्जनता और सज्जनों के साथ दुष्टता को व्यर्थ ही नहीं अनुपयुक्त समझने की मान्यता परशुराम के जीवन और आदर्शों में कूट-कूट कर भरी थी। अहिंसा के इसी स्वरूप का वे प्रतिपादन करते रहे। हिंसा और अहिंसा का अद्भुत समन्वय करने वाले परशुराम अभी भी हमारे विचार क्षेत्र में एक पहेली की तरह विद्यमान रहते हैं।

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