सस्ता सुलभ समयबद्ध न्याय कब मिलेगा?

सनी देओल का सुपरहिट डाॅयलाॅग है – ’ तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख , तारीख पर तारीख मिलती रही है मी लार्ड, बय इन्साफ नहीं मिलता ’
भारत की अदालतों में मिलने वाले न्याय की स्थिति का वर्णन उपरोक्त में वर्णित होता है। वैसे देश की न्यातंत्र की व्यवस्था के संदर्भ में समय समय पर आवाजें उठती रही हैं, बदलाव के बारे में बहस होती है, चर्चायें होती हैं। स्वतंत्रता के सात दशक की यात्रा में स्थितियों में काफी परिवर्तन आया है। किन्तु न्यायव्यवस्था में काफी कुछ करना आवश्यक है।
क्या काला कोट वकीलों को पहनना आवश्यक है?
काला कोट वकील न्यायालय में धारण करते हैं। वास्तव में यह कोट अंग्रेजी गुलामी के निर्णय का प्रतीक है। जब 1694 में इंग्लैंड की रानी मैरी का चेचक रोग से देहांत हुआ, तब उनके पति राजा विलियंस ने सभी जजों और वकीलों को काला गाउन पहनकर इकट्ठा होकर शोक मनाने का आदेश जारी किया। उस आदेश को कभी रद्द नहीं किया गया और आज तक वकील ये लम्बा काला गाउन पहनते आ रहे हैं। 1961 में सफेद पैंट और टाई एवं काला कोट पहनना अनिवार्य हुआ।

न्यायपालिका को न्याय की तलाश
कुछ समय पूर्व चार न्यायाधीशों ने पत्रकार सम्मेलन कर मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ बयान जारी किया। देश का इकलौता प्रतिष्ठान राजनीति का अखाड़ा बन गया।
न्यायाधीश चुनने की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है और न ही कुछ सार्वजनिक किया जाता है। कोई असहमति सामने नहीं आती। किसी को न्यायाधीश क्यों बनाया जाता है और किसी अन्य को यह पद नहीं दिया जाता इसकी कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी जाती । यहां से न तो नागरिकों को न ही संसद को और न ही इतिहासकारों को कोई जानकारी मिल पाती है जिससे उसे आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें।

वकील
वकील जितना प्रभावशाली होता है उसकी फीस उतनी ही बड़ी होती है। इसका मतलब साफ है कि न्याय के दरवाजे सिर्फ पैसे वालों के लिए खुले रहते हैं।

सुधार के इंतजार में न्यायिक तंत्र
आज न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधे होने का अर्थ है कि वह सबकुछ देख कर अनदेखा कर रही है। लेकिन आंखों पर पट्टी ही नहीं कानों में अब तो अवरोध भी लगा दिये गये हैं जो कानून के अंधे होने के साथ साथ बहरे होने के भी परिचायक हैं। सशक्त लोकतंत्र के लिए राजनीति को अपराधमुक्त करना जरूरी है तो न्याय प्रणाली को भी विलम्ब मुक्त करना होगा तथा प्रशासन को संवेदनयुक्त।
न्याय की धीमी गति ऐसा प्रश्न है जो न केवल न्याय प्रणाली पर बल्कि हमारे समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर ऐसा दाग है जिसने सारे दागों को ढक दिया है। एक तरह से अपराध पर नियंत्रण की बजाय अपराध को प्रोत्साहन देने का जरिया बनती जा रही है हमारी कानून व्यवस्था। न्याय के विलम्ब से अपराध करने वालों के हौंसले बुलन्द रहते हैं कि न्याय प्रक्रिया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती या 20-25 वर्षों में फैसला आयेगा जब तक स्थितियां बहुत बदल चुकी होंगी, अपराध करने वाले जिन्दा रहेंगे भी या नहीं। अदालती फैसलों की विडम्बना ही कही जायेगी कि जब अनेक निर्णय आते हैं तब तक तो अपराधी स्वर्ग पहुंच चुके होते हैं।
राम रहीम से पीड़ित साध्वी का उदाहरण भी हमारे सामने है। उन्हें अपनी पहचान छिपाते हुए देश के सर्वोच्च व्यक्ति मा. प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बयान की थी। फिर भी न्याय मिलने की प्रक्रिया शुरू होने में 15 साल और भाई का जीवन लग गया। साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को जहां सबूतों के अभाव के बावजूद वर्षों जेल में रहन पड़ा। गोधरा के अभियुक्तों को न्याय 16 साल में मिला। यह देर नहीं एक तरह से अंधेर है।
इसी अंधेरगर्दी एवं अदालती कामकाज पर शोध करने वाली बंगलूरू की एक संस्था के अध्ययन मे ंयह बात सामने आई है कि देश के कुछ हाईकोर्ट ऐसे हैं जो मुकद्दमों का फैसला करने में औसतन चार साल तक लगा देते हैं। वहीं निचली अदालतों का हाल इससे दुगना बुरा है। वहां मुकद्दमों का निपटारा होने में औसतन छह से साढ़े नौ साल तक लग जा रहे हैं।
– न्यायाधीश भले ही निर्धारित दिन नही काम करें, लेकिन यदि वे कभी छुट्टी पर जाये ंतो पूर्व सूचना अवश्य दें, ताकि वैकल्पिक व्यवस्था की जा सके।
– जब अस्पताल, पुलिस 365 दिन चल सकते हैं तो अदालतें क्यों नहीं।
– वकील जब प्रकरण ठीक से अध्ययन नहीं कर पाते अथवा मामले को मजबूती देने के लिए दस्तावेजी साक्ष्य को तलाश रहे होते हैं तो बिना किसी ठोस कारण के तारीख आगे खिसकाने की अर्जी लगा देते हैं। विडंबना है कि बिना कोई ठोस पड़ताल किए न्यायाधीश इसे स्वीकार कर लेते हैं।
– FSL Report , Doctor की रिपोर्ट देरी से पेश होने के कारण मामला लंबा खिंचता हैं।
– राजस्व विभाग पारदर्शी और प्रामाणिक कार्य करते हुए पीड़ितों को राहत दे सकता है। दीवानी अदालत की शरण में कोई जाना नहीं चाहता।
– पुलिस निष्पक्षता से भी मुकद्मों की संख्या घटेगी। पुलिस सामान्यतया अपराध पंजीकृत नहीं करती। पीड़ित अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं। अदालत फिर पुलिस से पूछती है। मुकद्दमा लंबा खिंचता है। प्रशासनिक न्याय की विफलता संपन्न वर्गों की मददगार है। गरीब मुकद्दमों का खर्च उठा नहीं सकते।

Leave a Reply