महत्त्वाकांक्षाओं से भरा चीन अपने अति आत्मविश्वास में भरा होने के कारण स्वयं को विश्व की तीसरी महाशक्ति समझने लगा था। एशिया महाद्वीप में अपना एकमात्र प्रभुत्व स्थापित करने की आकांक्षा में वह लगातार अपने सभी पड़ोसी देशों की सम्प्रभुता पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आक्रमण करने लगा। उसकी दादागिरी से जापान, आस्ट्रेलिया, वियतनाम, ताइवान, इण्डोनेशिया आदि देश तो त्रस्त थे ही, इसने श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश जैसे देश भी इसकी कुटिल चाल में फँसे हुए हैं। भारी कर्ज लेने के कारण श्रीलंका को अपना हम्बनटोटा बंदरगाह 99 वर्ष के लिए चीन को सौंपना पड़ा। इसी तरह पाकिस्तान ने भी चीन से लिए गये 10 अरब डॉलर के कर्ज के बदले बलूचिस्तान प्रान्त के ग्वादर पोर्ट पर भी चीन का ही नियन्त्रण है। इतना ही नहीं ग्वादर में चीन अपने पांच लाख नागरिकों को बसाने की योजना भी बना रहा है और चीनी युवान भी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था में लीगल टेंडर बन जायेगा। ये सभी घटनाएं चीन की विस्तारवादी नीति का स्पष्ट प्रमाण हैं।
चीन ने भारत को सीपेक में सहयोगी बनाकर यही उपक्रम करने का प्रयत्न किया था जिसे भारत ने स्पष्टत: अस्वीकार कर दिया। इसी झुंझलाहट में उसने आक्रामक रुख अपना लिया और लद्दाख के सीमावर्ती क्षेत्र में अपने सैनिकों को अतिक्रमण करने की अनुमति दे दी। किन्तु वह यह भूल गया कि 1967 के बाद से वैश्विक व्यवस्था ने एक लम्बी यात्रा तय कर ली है और भारत उस व्यवस्था का एक अपरिहार्य अंग बन चुका है। विश्व व्यवस्था में भारत की बढ़ती भूमिका को देखकर चीन को यह आभास तो हो ही गया कि अब विश्व विजय का उसका दिवास्वप्न भारत ही समाप्त कर सकता है। अपने स्वकल्पित तेज के पराभव की आशंका ने उसे कुंठित-बुद्धि बना दिया और वह ऐसे उपक्रम आयोजित करने के लिए प्रेरित हो उठा जिससे वह सम्पूर्ण विश्व के उपहास का पात्र बनने लगा। उसे लगा कि जिस प्रकार उसने वियतनाम, हांगकांग, ताइवान आदि को अपने प्रभुत्व से शान्त कर रखा है उसी प्रकार वह अपनी शक्ति के भय से भारत को भी शान्त कर देगा। उसकी यह कल्पना निराधार भी नहीं थी क्योंकि पूर्व में कांग्रेसी सरकार के समय में वह ऐसा कर लेता था। उसके ही भय से हमारे सीमान्त प्रान्तों पर कोई अवसंरचनात्मक कार्य नहीं किये जा सके। पूर्वोत्तर की जनता विकास की धारा से अछूती रही। किन्तु सत्ता परिवर्तन के बाद श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में भारत ने पूर्वोत्तर को प्रमुखता दी और वहां विकास कार्यों को तीव्र गति से सम्पन्न किया जाने लगा। इन्हीं प्रकरणों से चिढ़कर चीन ने 15 जून, 2020 को अपने अहंकार में भारतीय सैनिकों पर अप्रत्याशित हमला कर दिया। यद्यपि यह हमला सुनियोजित था और भारतीय सैनिक इसके लिए तैयार नहीं थे किन्तु इसके बावजूद हमारे सैनिकों ने अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए 45 से 50 चीनी सैनिकों का वध कर दिया।
इसके पश्चात प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ऐसी किसी भी भावी स्थिति के लिए अपने सैनिकों को शस्त्र चलाने की स्वतन्त्रता प्रदान कर दी और चीनी नेतृत्व कठोर संदेश दे दिया कि अब शत्रु के समक्ष हम शालीन बनकर नहीं रह सकते हैं। इसके साथ ही भारत ने चीन सीमा पर अपने वीर सैनिकों की पूरी तैनाती कर दी और चीन को चेतावनी भी दे दी कि यदि अब कोई अन्य दुस्साहस करने का प्रयास होगा तो उसका उपयुक्त प्रतिकार करने के लिए हमारी सेना तत्पर है।
अब चीन को यह आभास हो गया है कि जिस भारत को अपनी अघोषित शक्ति से वह दबाने का प्रयास कर रहा था उसमें से अब ज्वालामुखी के लावे निकलने लगे हैं। यदि उसे युद्धक्षेत्र में ललकारा गया तो स्वयं अपना विनाश सुनिश्चित है। इसी बीच अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया के भारत के पक्ष में मुखर होकर खड़े होने से उसकी स्थिति विषम हो गयी है। उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि भारत के बिछाये गये इस चक्रव्यूह से वह किस प्रकार ससम्मान वापसी करे। दूसरी ओर भारतीय नेतृत्व इस पर अडिग है कि उसे पीछे तो हटना ही है किन्तु उसे विश्व की दृष्टि में अपमानित और हेय भी प्रदर्शित करना है। भारत सदैव से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का पक्षधर रहा है किन्तु उसे ‘विषस्य विषमौषधम्’ का भी ज्ञान है। मित्रों के लिए प्राण अर्पण करने वाला भारत शत्रुओं के प्राण हरण में भी संकोच नहीं करता है। अब यह चीन पर निर्भर है कि वह अपनी दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग करे या इसी प्रकार विश्व की आलोचना का शिकार बने।