स्वास्थ्य नीति- नीयत – रणनीति, पुनर्विचार की जरूरत (1)

      कोरोना काल में दिल्ली पुलिस में कार्यरत एक पुलिस निरीक्षक को चार अस्पताल में भरती होने के लिए चार अस्पतालों में तीन दिन तक चक्कर काटने पड़े। आखिर में एक अस्पताल में भरती होने के चार घंटे में मौत हो गयी।

      जयपुर के एक किसान की कोरोना से मृत्यु हुयी, निजी अस्पताल में करीब 13 दिन भरती रहा। उसका बिल 19 लाख रूपये आया। उसका मृत शरीर देने से अस्पताल प्रशासन ने मना कर दिया और कहा कि पूरे पैसे जमा करने के बाद ही इसे ले जा सकेंगे।

      महाराष्ट्र, गुजरात सरकार को निजी अस्पतालों को खुलवाने के लिए अधिसूचना निकालनी पड़ी।

      महाराष्ट्र के पूना में एक मरीज तेज बुखार से पीड़ित था। करीब 5 अस्पतालों का दरवाजा खटखटाया लेकिन कोरोना संदिग्ध समझकर किसी ने उसे दाखिल नहीं किया आखिरकार उसकी मौत हो गयी।

      कोरोना काल में आंध्रप्रदेश सरकार को 58 निजी अस्पतालों पर नियंत्रण करना पड़ा।

      दिल्ली की प्रदेश सरकार ने कोरोना मरीजों के इलाज, आइसोलेसन और डाॅक्टरों की व्यवस्था के लिए निजी अस्पताल एवं पंचसितारा हाॅटेल अधिगृहीत किए। इनमें आर्थिक अनियमितता के आरोप भी लगे।

      गत कुछ वर्ष पूर्व  गोरखपुर के अस्पताल में दो दिन में 42 मरीजों की मौत हुयी, जांच करने पर पाया गया कि अस्पताल के अधीक्षक की आॅक्सीजन सिलेंडर उपलब्ध करवाने वाली कंपनी से मिलने वाली कमीशन के संबंध में विवाद हुयी जिससे सिलेंडर की आपूर्ति बाधित हुयी और आॅक्सीजन के अभाव में मरीजों की मृत्यु हुयी।

      गुरूग्राम (हरियाणा) के एक अस्पताल में डेंगू का एक रोगी भर्ती हुआ इलाज पश्चात उससे 17 लाख रूपये का बिल चार्ज किय गया। प्रशासन की जांच के पश्चात वास्तविक बिल 3 लाख रूपये का निकला।

      राजधानी दिल्ली के एलएनजेपी अस्पताल के कर्मचारियों के वीडियो वायरल हुये कि यहां कोई मरीज मत लाओ, वरना मौत के शिकार हो जायेंगे और लाश के लिए भी छटपटाना पड़ेगा।

      मुंबई के कूपर, केईएम, जसलोक से लेकर महानगर पालिका के स्टिंग सामने आ चुके हैं जिसमें कहते हुए पाया गया है कि यहां अगर मरीज भर्ती हुआ और बच गया तो चमत्कार ही है अन्यथा मरना तो तय है।

      मुंबई के एक अस्पताल में कोविड मरीजों के महत्वपूर्ण आंतरिक अंग निकाल लेने की शिकायतें  हुयीं।

      जलगांव (महाराष्ट्र) के एक अस्पताल में 82 वर्ष की बूढ़ी दादी अस्पताल वार्ड से गायब हो जाती है, पुलिस में शिकायत दर्ज करायी जाती है और 8 दिन बाद उसका शव वाॅशरूम में पड़ा पाया जाता है लेकिन खबर किसी को नहीं।

भारत में सरकारी अस्पताल अनेक स्थानों पर राम भरोसे चल रहे हैं| सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं हमेशा टीका-टिपण्णी की पात्र ही रही हैं| भारत में कमोबेश केंद्र और राज्य सरकारों ने निजी स्वास्थ्य सेवाओं को फलने फूलने में प्रोत्साहन दिया|

देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा काफी चरमरा गया है| गांव में जो सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र काम करते हैं उनमें से अधिकांश इस वक्त बुरी हालात में हैं| कुछ अस्पतालों को छोड़ दें तो अधिकांश शहरी अस्पताल भी बुनियादी ढांचे के अभाव का सामना कर रहे हैं और निजी अस्पतालों का दबदबा है | कोरोना महामारी की जंग में निजी अस्पतालों की भूमिका ना के बराबर है|

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8% थी जो अब बढ़कर 93% हो गई है वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75% बढ़ गया है| इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया है| निजी अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना है| लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में से कुछ एक प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा है कि मरीज को अपना घर जमीन एक तक गिरवी रखना या बेचना  पड़ जाता है|

One thought on “स्वास्थ्य नीति- नीयत – रणनीति, पुनर्विचार की जरूरत (1)

  1. आदरणीय भाईसाहब, सादर प्रणाम!
    एक ही उपाय है कि स्वास्थ्य सेवा का केन्द्रीयकरण करते हुए राष्ट्रीकरण कर दिया जाय। प्रत्येक 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर हो,व प्रति 3000 की आबादी पर एक अस्पताल बने। यदि यह साकार हो जाय तो निजी अस्पतालो पर प्रभावी अंकुश लगेगा और प्रधानमंत्री द्वारा प्रदत्त बीमा योजना बहुत ही व्यापक स्तर पर परिलाक्षी होगी।
    ऐसा ही प्राविधान नीदरलैंड में है, क्यूबा में है। दोनों स्वास्थ सेवा में अनुकरणीय उदाहरण हैं।

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