हिन्दू होना ही समावेशक है

हिंदू धर्म में पृथ्वी के समस्त जीवों एवं सम्पूर्ण प्रकृति के प्रति कल्याण और वसुधैव कुटुंबकम् की सर्व समावेशी और बड़ी सुन्दर व लचीली व्यवस्था रही है।ईश्वरीय सत्ता को प्रधान मानने वाला परोपकारी, दयालु, उदार और यहां तक कि ब्रह्माण्ड के सभी ज्ञात एवं अज्ञात गृहों और नक्षत्रों के प्रति भी कृतज्ञता का भाव रखने वाला सनातन धर्म  कभी भी कट्टर और दुराग्रही नहीं रहा है।

आप नियमित मन्दिर जाते हैं तो भी हिन्दू होते हैं और कभी भी मन्दिर नहीं जाते तो भी हिन्दू माने जाते हैं। भजन-प्रार्थना व व्रत-उपवास करते हैं, तो भी हिन्दू होते हैं और ऐसा नहीं करते तो भी हिंदू होते हैं। पुण्य-परोपकार-दान करते हैं, तो भी आप हिन्दू हैं और ईश्वर पर प्रश्न उठाने पर भी आप हिन्दू बने रह सकते हैं। ऐसी व्यवस्था विश्व में और कहीं नहीं है।अहिंसा को स्थायी भाव के रूप में धारण कर चुके इस धर्म ने किसी अन्य धर्मावलंबी की धार्मिक मान्यताओं का कभी भी अतिक्रमण एवं अनादर नहीं किया। उनके तीज त्योहारों में शामिल होकर खुशी व्यक्त करके शुभकामनाएं देने वाले इस सर्वाधिक प्राचीन धर्म ने अपने विचारों को दूसरों पर थोपने या उसके भौगोलिक एवं जनसांख्यिकीय विस्तार की कभी कोई योजना नहीं बनायी।फिर क्या कारण है कि हमें उदार एवं सर्व समावेशी होने की हानि हुई। हिन्दू संख्या दृष्टि से भी घटा और भौगोलिक दृष्टि से भी घटा और हम सिकुड़ते सिकुड़ते भारत के वर्तमान क्षेत्र तक सीमित हो गए हैं। आज कुछ राष्ट्रद्रोही हमें पुनः विभाजित करने का सपना भी देख रहे हैं।

धर्म रक्षार्थ एकजुट होकर शस्त्र उठाने की भगवान श्रीकृष्ण की नीति त्यागकर, स्वयं के धर्म पर आक्रमण की स्थिति में भी आपस के वैमनस्य के कारण अहिंसावादी एवं तटस्थ बने रहने के दुष्परिणाम तो कहीं हम नही भुगत रहे, इस पर पूरी ईमानदारी के साथ विचार करने की आवश्यकता है।सातवीं शताब्दी में उदित होने वाला धर्म, दृढ़ आस्था के साथ-साथ कट्टर, अमानवीय और विस्तारवादी नीति अपनाकर, अपने धर्म को पूरी दुनियां में फैला देने का संकल्प लेकर एकजुट होकर लड़ा, और हम सहित अनेक देशों पर विजय पाई।

हम लोग परम वीर, साहसी और बलिदान हेतु तत्पर रहने के बावजूद मात्र अपना क्षेत्र और अपनी सत्ता बचाने हेतु अलग-अलग लड़ते रहे। यह कटु सत्य है कि हम लोग मात्र धर्म रक्षार्थ अथवा धर्म विस्तार के लिए नहीं लड़े। संभवतः यही कारण रहा कि हम लोग पराजित हुए, लंबी गुलामी झेली और बड़ी संख्या में हमारा बलात धर्म परिवर्तन हुआ। अंततोगत्वा धर्म के आधार पर ही भारत का विभाजन भी हुआ।  

यह बात ध्यान देने योग्य है कि सनातन से ही निकला एक पंथ “बौद्ध”, विस्तारवादी दृष्टिकोण अपनाकर दुनिया के अनेक देशों में फैल गया जबकि सर्वाधिक अहिंसक, दयालु और परोपकारी जैन पंथ धीरे धीरे न केवल प्रतिशत में बल्कि कुल संख्या में भी घट गया है।वहीं देश के उत्तर-पश्चिम भाग के हिंदू धर्म के ही कुछ राष्ट्रभक्त गुरूओं ने इस्लाम के अत्याचार और विस्तार को रोकने के लिए हर घर से एक पुत्र को योद्धा बनाने के उद्देश्य से पवित्र खालसा पंथ की स्थापना की। निडर होकर, धर्म रक्षार्थ संकल्प लेकर लड़ाइयां लड़ीं तो उत्तर पश्चिमी भारत के एक बड़े भूभाग से इस्लाम को उखाड़ फेंकने में सफलता प्राप्त की।  

सिख पंथ के अनुयायियों द्वारा भगवान राम और कृष्ण को अपना पूर्वज मानने और हिन्दू धर्म में अपनी जड़ें मानने के बावजूद कुछ मुठ्ठीभर लोगों के निहित स्वार्थों और तत्कालीन राजनीतिक कारणों के परिणामस्वरूप यह पंथ एक अलग धर्म बन गया, यह एक बिडंबना ही है और विचारणीय भी है। यह सत्य है कि पूरा सिख पंथ भारत माॅ को अपनी माॅ मानता है तथा स्वंय को सनातन का प्रमुख अंग समझता है।

आज जिस प्रकार हम निरंकारी, जय गुरुदेव, धन-धन सतगुरु, डेरा सच्चा सौदा, राधा-स्वामी, रामपाल, आसाराम, ब्रह्माकुमारी, स्वामीनारायण आदि मत-पंथों में बंटे हैं, उससे सिद्ध होता है कि हमने पूर्व की घटनाओं से सबक नहीं लिया है। संभवतः हम लोग समझ ही नहीं पा रहे हैं कि अगर हम इसी प्रकार मत-पंथों में बंटे रहे या अलग अलग धर्म बनाते रहे तो कुछ ही वर्षो में जीवित रहने के लिए भी संघर्ष होगा।ब्राह्मण-त्यागी-सैनी-राजपूत-वैश्य सभाएं, जाट- गुर्जर-यादव संगठन, कश्यप-कायस्थ-भूमिहार-भीम सेना और महापुरुषों के नाम पर अलग-अलग संगठन बनाकर, हम स्वंय को सबसे साहसी एवं वीर-दानवीर बताकर श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। दूसरी ओर अपनी जाति अथवा संगठन की  सरकार द्वारा उपेक्षा और सौतैला व्यवहार करने की बात करते हुए और बर्दाश्त नहीं करने की चेतावनी देते रहते हैं। यह सब हमें किस ओर ले जा रहा है, इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। 

वहीं दूसरी ओर आपस में जमकर लड़ाई-झगडा और खून- खराबा करने वाले लोग, धर्म के नाम पर पल-भर में एकजुट हो जाते हैं। उनके अपने धर्म के हितों के हिसाब से अनुपयुक्त दल को हराने हेतु वह लोग एकजुट होकर वोटिंग करते हैं। चाहे धार्मिक आधार पर भारत को विभाजित करके बने देशों पाकिस्तान व बांग्लादेश की क्रिकेट टीमों के समर्थन की बात हो, या फिर अनेक हत्याओं एवं बलात्कार के बाद 5 लाख कश्मीरी हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर करने वाले आतंकवादियों के समर्थन की बात हो, आपसी मतभेद भुलाकर वह लोग क्षणभर में एकजुट हो जाते हैं। 

क्या यह अजीब बात नहीं है कि भारत माता के धर्म आधारित विभाजन के पश्चात बचे हिंदू बाहुल्य भारत में भी एक ओर जहां सत्ता की शह पर विशेष अल्पसंख्यक धर्म द्वारा लगातार धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर लोकतंत्र की सीमाओं का लाभ उठाते हुए अधिक बच्चे पैदा करके अपने आपको एक ठोस वोट बैंक के रूप में स्थापित भी कर लिया गया है।

अपनी सत्ता को बचाये रखने हेतु सेक्युलर दिखने के चक्कर में कश्मीर से हिंदू के पलायन, केरल, पश्चिम बंगाल, हरियाणा के मेवात और असम के बड़े भूभाग से हिन्दू के क्रमिक परिवर्तन एवं पलायन की ओर से सरकारों द्वारा लगातार आंखें बंद रखी गयी हैं। यहां तक कि तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व द्वारा इस देश के संसाधनों पर भी धर्म विशेष के लोगों का प्रथम अधिकार सिद्ध कर दिया गया।जिस विचारधारा, संगठन अथवा दल ने राष्ट्र सर्वोपरि या हिन्दू धर्म और विभाजित ना हो जैसी सोच रखी, ऐसे संगठनों और दलों को पाठ्यक्रम, सरकारी टेलिविजन, एनजीओ, ब्यूरोक्रेसी और अन्य सरकारी संस्थाओं के माध्यम से सैक्यूलरिज्म के नाम पर अछूत बनाने की लगातार कोशिश की गई।

देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल ऐसा करके हमेशा सफल रहा तो छोटे-छोटे ऐसे क्षेत्रीय दल भी उभर आए जिन्होंने उस धर्म की हर उचित अथवा अनुचित मांग मानकर उनके लिए अपने अपने राज्यों में एक प्रकार से ऐसी अघोषित आरक्षित व्यवस्था बना दी, जिससे कि हिन्दू उस राज्य में दोयम दर्जे का नागरिक बनकर रह गया। हिन्दू एवं राष्ट्र को एकजुट करने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 90 वर्ष की अनवरत तपस्या और सत्ता द्वारा धर्म विशेष के तुष्टिकरण की पराकाष्ठा के प्रतिक्रियास्वरूप वर्ष 2014 में समस्त सनातन समाज एकजुट हुआ और एकजुट होकर उसने अपने अनुकूल विचारधारा वाले राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत देकर सत्ता सौंप दी। 

Leave a Reply