जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना…..

दीपावली का त्यौहार हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए वृहत्तम त्यौहार है। अमावस्या की तिथि के गहनतम अन्धकार में दीपमालिका की पंक्तियाँ रात्रि के व्यापक अंधेरों से संघर्ष करते हुए जीवन-संघर्ष से उबरने की प्रेरणा देती हैं। लंका के असुरों का मानमर्दन और धर्म की स्थापना करने के उपरान्त भगवान श्रीराम इसी दिन अयोध्या वापस लौटे थे और इसी कारण इस प्रकाशोत्सव का महत्त्व और भी मान्य हो जाता है। यह त्यौहार कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाता है। कार्तिक मास में सूर्य की किरणों एवं चन्द्र किरणों का पृथ्वी पर पड़ने वाला प्रभाव मनुष्य के मन मस्तिष्क को स्वस्थ रखता है अत: वैज्ञानिक दृष्टि से भी इस मास का विशेष महत्त्व है। अद्‌भुत संयोग यह कि देश की महान धरोहर और स्वतन्त्रता आन्दोलन के पश्चात भारत के प्रथम महानतम जनान्दोलन के प्रणेता श्री जयप्रकाश नारायण तथा महान ऋषि एवं भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्री नानाजी देशमुख का जन्म भी इसी मास में हुआ। एक दीपक की भाँति उन्होंने भी देश के तत्कालीन व्याप्त अन्धकार का उच्छेद किया।

दीपावली मात्र एक त्यौहार ही नहीं है बल्कि हमारी सनातन संस्कृति की वाहक भी है। आज देश में शुचिता और स्वच्छता के लिए सरकारी स्तर पर अभियान चलाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका कारण यह है कि हम अपनी परम्पराओं और संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। दीपावली का त्यौहार कुछ ही वर्षों से नहीं मनाया जा रहा है। जब देश ही क्या विश्व में नगरीकरण होना प्रारम्भ भी नहीं हुआ था तबसे यह भारतीय जनमानस का प्रियतम पर्व रहा है। देश के छोटे-छोटे गाँवों में भी इस पर्व के समय चारों ओर स्वच्छता का स्वैच्छिक अभियान चलाया जाता रहा। हमारे पर्व हमारी जीवन शैली का निर्धारण करते रहे हैं। हम जितना ही उच्चतर सभ्यता की ओर अग्रसर होते गये उतना ही जीवन मूल्यों से हमारा सरोकार समाप्त होता चला गया। कलुष रूपी अन्धकार ने बाह्य जगत को छोड़कर लोगों के हृदय में अपना स्थान बनाना प्रारम्भ कर दिया। मन में समाये इस तिमिर ने विविध स्वरूपों में अपनी उपस्थिति दर्शाई। वैश्विक आतंकवाद, पड़ोसी देशों की भूमि पर बलात् कब्जा करना, पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि करके विकसित देशों की पंक्ति में विराजमान होना, रक्त-रंजना के लिए सदैव युद्धोन्मादी रहना, कपटपूर्ण आचरण आदि अनेक प्रकार के अन्धकार अपने अस्तित्व की वृद्धि में तत्पर हैं। “सह नौ भुनक्तु” का उद्घोष हमारे ऋषियों की देन है। हमारी सनातन (अर्थात जब देवों की उत्पत्ति भी नहीं थी) संस्कृति प्रकृति को दैवीय वरदान मानती है जिसका प्राय: उपहास किया जाता है। और हमारी संस्कृति यह मान्यता भी स्थापित करती है कि विश्व में प्रकृति के साधनों पर प्रत्येक जीवित प्राणी का समान अधिकार है। हम सभी साथ-साथ इसका उपभोग करें। किन्तु हृदय में स्वार्थ रूपी अन्धकार ने जब अपना विस्तार पाना प्रारम्भ किया तो त्याग की इस भावना का भी ह्रास होता चला गया। आज हम जागने का प्रयास तो कर रहे हैं लेकिन हमने अपने अन्धकार को इतना विस्तृत कर लिया है कि उसका उच्छेद कर पाना अदम्य साहस का कार्य होगा।

सौभाग्य से सुदीर्घ अवधि के उपरान्त आज देश में उसी संस्कृति की वाहक सरकार की स्थापना हो पायी है। अनेक बलिदानों और महापुरुषों के सतत प्रामाणिक प्रयास से देश को भारतीय संस्कृति की पोषक सरकार का पारितोषिक मिल पाया है। जनसंघ से प्रारम्भ करते हुए अपनी दीर्घ यात्रा के दौरान अनेक मानवीय आपदाओं से जूझते हुए भीषण संघर्ष के उपरान्त आज देश में सरकार का यह स्वरूप उपस्थित हुआ है। अब देशवासियों से अपेक्षा है कि दीपावली के इस पर्व पर वे नवीन संकल्प के साथ एक ऐसा दीपक प्रज्वलित करें जिससे देश में कलुषित हृदय वालों के मानस में निहित अन्धकार को समाप्त कर सकें। सभी आपसी भेदभाव को भुलाकर देश में एक नवीन आलोक की स्थापना करें जिसमें ‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना’ की अवधारणा फलीभूत हो सके और भारत के चिर पुरातन सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की जा सके। हम ऐसा दीपक जलायें जिसमें स्नेह रूपी तेल हो और उसका प्रकाश समस्त अन्धकारों को नष्ट करने में सक्षम हो सके।

 

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