पुरानी पेंशन को लेकर राजनीति

यूं तो पेंशन और चुनाव में कोई संबंध नहीं है लेकिन विगत कुछ समय से पेंशन योजना भी चुनावी मुद्दा बन गया है । हिमांचल प्रदेश में कांग्रेस की जीत के बाद यह मुद्दा गरमाया हुआ है ।कांग्रेस यहां पुरानी पेंशन योजना बहाली के वादे के साथ ही सत्ता में आई है। पार्टी ने कैबिनेट की पहली ही बैठक में इस सवाल पर अमल का ऐलान भी कर दिया। राजस्थान में भी कांग्रेस सरकार पुरानी पेंशन योजना बहाल कर चुकी है। पंजाब में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी भी इस योजना की बहाली पर काम कर रही है। असल में या किसी योजना लागू कर देने भर का सवाल नहीं है यह संबंधित राज्य की आर्थिक स्थिति का मसला है।

वैसे देखा जाए तो 2004 में जब तत्कालीन राजक सरकार ने इस योजना को बंद करते हुए नई पेंशन योजना लागू की थी ।तब यही कहा गया था कि पेंशन की पुरानी योजना का बोझ अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं है इसलिए केंद्र के स्तर पर नई राष्ट्रीय पेंशन योजना को धीरे-धीरे सभी राज्यों ने अपना लिया था। अब जिस तरह से चुनावी लाभ के लिए राजनीतिक दल पेंशन योजना को हथियार बनाने लगे हैं। उसने आर्थिक विशेषज्ञों की नींद उड़ा दी है जिन राज्यों में पुरानी पेंशन योजना को बहाल किया जा रहा है, वहां अगली सरकारों को अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा ।इससे करदाताओं पर भी अतिरिक्त दबाव पड़ने की बात कही जा रही है पुरानी और नई पेंशन योजना के प्रावधान इनके नफा नुकसान और राज्य की अर्थव्यवस्था एवं कर्मचारियों के हितों के बीच में संतुलन समझते हुए किसी समाधान तक पहुंचना आज हम सब के समक्ष एक बड़ा मुद्दा है।

एक बुनियादी सवाल यह है कि सरकार करदाताओं की कीमत पर कुछ लोगों को आर्थिक सुरक्षा क्यों दे, जैसा की पुरानी पेंशन व्यवस्था में था ।बेशक एनपीएस देश में नाकामयाब रही है जिसका दावा इसे बनाते समय किया गया था । कैग की 2018 की रिपोर्ट और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने भी इस बात पर आपत्ति जताई थी, इसके बावजूद जिस तरह से यह मुद्दा राजनीतिक दृष्टि से छा रहा है वह सही नहीं है। देश में बंगाल को छोड़कर सभी राज्यों ने एनपीएस को अपने यहां लागू कर रखा है। पेंशन राज्यो का विषय है और इसे  केंद्र रोक नहीं सकता सभी राज्यों ने इसे सुरक्षा से लागू किया है। जहां दलों ने 2004 में इसका विरोध किया लेकिन रोचक तथ्य यह है कि केरल ,त्रिपुरा में वाम शासित सात राज्यों ने भी इसको लागू किया। स्टार्लिन, जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक सब ने इसे लेकर आपत्ति तो खूब की लेकिन सत्ता में आने के बाद इसे लागू किया ।उत्तर प्रदेश जहां से इस मुद्दे ने ज्यादा जोर पड़ा, वहां इसे लागू करने वाली सरकार भी समाजवादी पार्टी की ही थी।

पुरानी पेंशन के पक्ष में एक बात कहा जाता है कि 2005 में नियुक्त कर्मचारियों का रिटायरमेंट 2030 में प्रारंभ होगा इसलिए तत्काल राज्य सरकारों पर इसका बोझ नहीं आएगा । राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री इस घोषणा में आगे रहे क्योंकि इन राज्यों में अगले साल चुनाव होने थे।जाहिर है कि मामला चुनावी राजनीति से जुड़ा है लेकिन प्रत्येक राज्य के लिए इसे लागू कर पाना इतना आसान नहीं है, जितना बताया जा रहा है। राजनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अशोक गहलोत और कांग्रेस इस मामले में केंद्र सरकार से कदम उठाने की बात भी कर रहे हैं जबकि यह पूरी तरह से राज्य का विषय है और हो सकता है यही कारण है कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में दोनों जगह सरकारी उनकी चली गई।

नई पेंशन योजना को लेकर रोचक पक्ष यह है कि इसकी मूल वास्तुकार कांग्रेस ही थी जिसे मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इसे आकर दिया था ।अब चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस शासित राज्य इस पर रोलबैक कर रहे हैं ।बेहतर होगा कि देश में पेंशन के विषय को समावेशी बनाकर नई नीति लाई जाए अभी प्रचलित भी सभी पेंशनों का विलय कर एक ऐसी पेंशन नीति का निर्माण किया जाए जो हर वास्तविक जरूरतमंद को एक प्रामाणिक सुरक्षा कवच प्रदान करें ।सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी तमाम पेंशन को अटल पेंशन योजना के साथ संयुक्त किया जा सकता है।

 किसान सम्मन निधि, व्यापारी पेंशन, पत्रकार सारधा मिशा बंदी पेंशन ,राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा पेंशन , ऐसीसभी पेंशन के प्लेटफार्म एक जगह जोड़कर यथा क्षमता अंश दान एवं अनुदान मूलक पेंशन का खाका खींचा जा सकता है ।

पुरानी पेंशन  एक तरह के समाजवाद का प्रारूप ही है और वित्तीय साक्षरता को प्रमोट कर अंशदाई पेंशन को और भी बेहतर तरीके से व्यावसायिक मापदंडों से प्रचलित करने को प्रोत्साहन देने की सामाजिक आवश्यकता है। पेंशन अगर सरकारी कर्मचारियों के लिए आवश्यक मान ली जाए तो कर्मचारियों के कारण निष्पादन और सतत मूल्यांकन से इसे क्यों न जोड़ा जाए। 50% अंतिम वेतन के प्रावधान पर भी विचार किया जाना चाहिए। ऑप्स जब आया था तब भारत में जीवन प्रत्याशा कम थी ,आज वह काफी बढ़ चुकी है ,ऐसे में कर देने वाले के नजरिए से भी विचार होना चाहिए।

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