राम मन्दिर केवल चुनावी मुद्दा नहीं बल्कि सतत आस्था का प्रतीक है

भगवान श्रीराम ने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में कभी मानवीय मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। राजा, पुत्र, भाई, शिष्य और समाजसेवक के रूप में उन्होंने मानवीय मर्यादाओं का दृढ़ता से पालन किया। उन्हें मानवीय सम्बन्धों के अग्रदूत के रूप में चित्रित किया जाता है। एक शासक का अपनी जनता के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए यह भगवान श्रीराम के जीवन से सीखा जा सकता है। आज जब ऐसे महापुरुष की चर्चा की जाती है तो कतिपय तथाकथित बुद्धिजीवी इसे एक विशेष प्रकार के सेक्युलर चश्मे से देखते हैं और बिना एक क्षण का विलम्ब किये भगवान श्रीराम के आदर्शों का उल्लेख करने वाले व्यक्ति को साम्प्रदायिक घोषित कर देते हैं। भगवान श्रीराम के आदर्श कालातीत हैं अर्थात वे धरती पर जीवन के आदि से अन्त तक मानवीय मूल्यों की रक्षा करने में समर्थ हैं। आज यदि हमें देश में सुख, शान्ति और समृद्धि का वातावरण सृजित करना है तो एक बार समवेत स्वर उनके आदर्शों का अनुकरण करना ही होगा। जो सिद्धान्त कालातीत हैं उनके लिए चुनावी मौसम हो या न हो वे सदैव मार्गदर्शन का कार्य करते रहेंगे।

ऐसे महापुरुष ही पावन जन्मस्थली पर उनके प्रतीक की स्थापना निष्पक्ष भाव से स्वीकार्य होनी ही चाहिए। यह अलग बात है कि विपक्ष के कुछ नेता सदैव इस तथ्य को चुनाव से ही जोड़कर देखते हैं। उनके मन में कभी यह भाव नहीं आता है कि देश की विपुल जनसंख्या आदर्श के इस प्रतीक की स्थापना होते हुए देखना चाहती है और उनकी भावनाओं का आदर करते हुए एक सहमति का वातावरण तैयार करना चाहिए। उनकी दृष्टि में यदि यह चुनावी मुद्दा हो भी तो इसकी स्थापना के माध्यम से वे चाहें तो इस मुद्दे को सदा के लिए समाप्त कर सकते हैं। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब उनके मन निर्मल हों, उनमें भी अपने देश के एक महापुरुष के प्रति श्रद्धा का भाव हो। महापुरुषों को कभी किसी जाति या धर्म विशेष से जोड़ना उनके व्यापक व्यक्तित्व को सीमित करना है। भगवान बुद्ध, महावीर जैन, गुरु नानक, गुरु गोविन्द सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, महात्मा गांधी और भीमराव अम्बेडकर जैसे अनेक महापुरुषों की शृंखला भारत के गौरवशाली अतीत की झाँकी प्रस्तुत करती है। इन्हें हम किस प्रकार किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय से जोड़कर देख सकते हैं। इन सभी महापुरुषों ने किसी जाति या धर्म विशेष पर केन्द्रित होकर चिन्तन नहीं किया। इन लोगों ने सदैव मानवता और मानवीय मूल्यों का चिन्तन किया। हम मनुष्य पहले हैं और किसी धर्म के अनुयायी बाद में। मानवता मानव धर्म का सूचक है। और इन महापुरुषों ने समस्त मानवीय पहलुओं को प्रकाशित करने का ही प्रयास किया।

चुनाव तो एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है। इसे चलना ही है। किन्तु इसमें शुचिता किस प्रकार लाई जाये इसके लिए हमें मानवीय मूल्यों का पोषण और उसका अनुपालन करना होगा। भगवान श्रीराम भी इन्हीं मानवीय मूल्यों के रक्षक और अनुगामी थे। सरकार किसी भी दल की हो, भगवान राम सनातन थे और सनातन रहेंगे। यह संयोग की ही बात है कि उत्तर प्रदेश में भी इसी वर्ष चुनाव सम्पन्न होंगे और यदि भगवान राम की चर्चा की जाये तो स्वतः ही वह अयोध्या से जुड़ जाती है क्योंकि अयोध्या भी उत्तर प्रदेश में ही स्थित है। उचित समय है कि जनभावनाओं का आदर करते हुए पारस्परिक सहमति से भगवान राम के मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ किया जाये और प्रजा की समुचित रक्षा और पोषण के लिए भगवान राम के आदर्शों का अनुपालन किया जाये। इसे कभी चुनावों से न जोड़ा जाये। तभी सच्चे अर्थों में देश में रामराज्य की कल्पना साकार हो सकती है, समाज में समरसता आ सकती है, मानवीय सम्बन्धों को विकसित किया जा सकता है। अन्यथा इसका विरोध समाज के नैतिक पतन का भी कारण बन सकता है और उस दशा में स्थिति नियन्त्रण में नहीं रह पायेगी और पूरा देश अघोषित तनाव से घिरा रहेगा। भगवान राम को धर्म, जाति और सम्प्रदाय से परे रखकर और उनके सिद्धान्तों को अपने जीवन में उतारकर ही हम सच्चे अर्थों में मनुष्य कहलायेंगे।

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