दशहरे के सुअवसर पर लखनउ के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री ने जयश्री राम का उद्घोष क्या किया , सभी उनके पीछे पड गये, उनको लगता था कि प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान से राजनैतिक हवा दी है और इसका लाभ वह आगामी चुनाव में लेना चाहते है। बात यहां तक ठीक थी कि विपक्षी की नैया डूब रही है उसे तिनके का सहारा चाहिये लेकिन वह मोहर्रम का मातम मनाकर इसे रोक सकता था वह नही किया क्योंकि उसमें दर्द होता है और मेहनत भी लगती है। हींग लगे न फिटकरी फिर भी काम चोखा , यह बात विपक्ष पर सटीक बैठती है ,जो काम आसानी से हो जाये उसके लिये मेहनत की क्या जरूरत , उसे सोचना चाहिये था कि रामलीला मैदान में राम का नाम नही चलेगा तो क्या अल्लाह की पुकार होगी। राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट , अंत काल पछतायेगा , प्राण जायेगा छूट । पता नही यह बात हमारे नेताओं के समझ में कब आयेगी। हैरत इस बात पर है कि उन्हें इस नाम पर भी राजनीति दिखती है और वह इसे सार्वजनिक मंच पर कहने से भी बाज नही आते।
अब सवाल यह है कि यह आरोप भारतीय जनता पार्टी के नेताओं पर ही क्यों ? प्रधानमंत्री तो देश के है उनपर आपत्ति क्यों की जा रही है।इसके कई कारण है भारत हिन्दू बहूल्य देश है और सहिष्षणु हिन्दू जो किसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया नही देते लेकिन जब देते है अर्श से उठाकर फर्श पर ला देते है।राम के नाम पर राजनीति तो कांग्रेस से ही शुरू हुई थी जब मुस्लिमों को खुश करने व उनके वोट लेने के नाम पर राममंदिर में ताला लगा दिया गया था। भाजपा ने जब उसे खोलवाने की कोशिश की तो उन्हें लगा कि मुस्लिम नाराज होगें वोट बिखरेगा तो कारवाई की , यह भी राम के नाम पर की गयी राजनीति थी। इसके बाद समाजवादी पार्टी ने रामभक्तेां पर गोली चलवाकर मुस्लिम वोट अपने तरफ कांग्रेस से मोड़ा , यह भी राम के नाम पर राजनीति थी और आज भी कर रहें है । जब मंदिर टूटा तो केन्द्र की कांगे्रस सरकार ने भाजपा के एक सरकार की गलती की सजा चार राज्यों को दी , यह भी राम के नाम पर की गयी राजनीति थी जिसे मुस्लिमों को खुश करने के लिये की गयी थी। सभी राम के नाम पर राजनीति कर रहें है तो विवाद क्यों किस बात पर ?
अब संम्प्रदायिकता की बात करते है तो भाजपा हिन्दूओं की बात करे तो साम्प्रदायिक और कांग्रेस व समाजवादी पार्टी मुस्लिमों की बात करे तो सम्प्रदायिक नही है एैसा क्यों ? कांग्रेस की बात अलग है क्योंकि उनके यहां इस्लाम उनके कल्चर में शामिल है कांग्रेसी भी कहते है वह उनके डीएनए में है । उनकी बहुत सी बातें तैमूर लंग,मोहम्मद गोरी , महमूद गजनी से मिलती जुलती है और उनके कारनामें भी वैसे ही है। किन्तु समाजवादी पार्टी के मुखिया तो समाजवादी थे , समाज के बारे में उन्हें सोचना था वह काम उन्होनें क्यों नही किया। राम मनोहर लोहिया की पद्चिन्हों पर क्यों नही चले, यह बात लोगों के जेहन में उठती है कि हिन्दू होकर हिन्दूओं पर गोली चलाने का आदेश कैसे दिया। खुलकर बोलते है कि और हिन्दू मारता , हिन्दू समाज को उन्हें जबाब देना चाहिये।इस बार उत्तर प्रदेश में जबाब मिलेगा भी और हो सकता है कि यह उनके जीवन का आखिर चुनाव हो जिसमें वह अपनी कथनी व करनी की परिभाषा को समझ सके।
सही मायने में देखा जाय तो आज के नेताओं व पार्टियों के पास कोई मुद्दा ही नही है । उन्हें डर है कि अगर केन्द्र में मोदी सरकार रह जायेगी तो उन्हें नये और नयी तरह के मुद्दे तलाशने होगे। पुराने मुद्दों पर अब सरकार नही बनने वाली , बिहार की जनता इस बात को इस चुनाव के बाद हुए घटनाक्रम से समझ चुकी है और उत्तर प्रदेश समझ रहा है।परिवारवाद खत्म हो रहा है और इसकी शुरूआत गांधी परिवार से हो रही है। राहुल गांधी हर मामले पर आंैधे गिर रहें है , अखिलेश भी विवादों में है और आने वाले समय में लालू के पुत्र भी विवादों में रहेगें। अब विपक्षी दलों को समझना होेगा कि पार्टी परिवार नही , लोग चलाते है उन्हें अब आगे और नही बेवकूफ बनाया जा सकता ।
उत्तर प्रदेश का चुनाव नोटबंदी के मसले पर नही बल्कि हिन्दू मुस्लिम के बीच लड़ा जायेगा , यह बात अब खुलकर सामने आने लगी है क्योंकि जिस तरह से हिन्दू असुरक्षित है और वहां उन्हें जबरन सताया जा रहा है उससे संकेत इसी बात के निकलते है , मुल्ला मुलायम व मायावती भी हिन्दूओं पर मुसलमान को तहजीब दे रही है और कांग्रेस ने तो सारा कुनबा ही मुसलमानों का लगा दिया है जिसे हिन्दू व ब्राहमण कहते है वह मुस्लिम दामाद के कारण जुबानों पर चढा हुआ है। ऐसे में अब एक ही बात बचती है कि राम बचाये उ.प्र को ।