कॉलेजियम सिस्टम पर बहस जरूरी

संविधान ने न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका को दिया था ।1950 से 1993 तक यही व्यवस्था रही फिर सुप्रीम कोर्ट में सर्वोच्च न्यायाधीश से सलाह लेने का अर्थ उसकी स्वीकृत जैसा करके अपनी अनुशंसा वाली कॉलेजियम व्यवस्था बना दी जबकि कोई सलाह मानना ना न मानना वैकल्पिक होता है ।कॉलेजियम व्यवस्था का तीन दशकों का अनुभव दिखाता है कि उसके परिणाम अच्छे नहीं हुए इस पर न्यायाधीशों न भी अपनी आपत्ति उठाई है। इसलिए कॉलेजियम पद्धति पर पुनर्विचार जरूरी हो गया है ।

न्यायालय में आंतरिक मूल्य को लेकर भी जस्टिस सब्यसाची मुखर्जी और जस्टिस रूमा पाल आदि ने भी जो प्रश्न उठाए हैं उनका निराकरण बहुत ही जरूरी है।मौजूदा व्यवस्था के बचाव में न्यायिक स्वतंत्रता का तर्क दिया जाता है लेकिन ध्यान रहे कि संविधान में राज्य व्यवस्था के तीनों अंगों को स्वतंत्रता दी है अतः उस तरफ से संसद और विधानसभाओं तथा केंद्रीय और राज्य मंत्री मंडलों को भी अपने अगले उत्तराधिकारी स्वयं तय कर लेने की छूट होनी चाहिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एवं जजों को कॉलेजियम की तर्ज पर वरिष्ठ सांसदों या मंत्रियों का कॉलेजियम भी अनुशंसा करें कि अगले सांसद और मंत्री कौन-कौन होंगे आखिर न्यायिक स्वतंत्रता की तरह विधायिका कार्यपालिका को भी स्वतंत्रता उसी संविधान में भी है इसलिए आदर्श व्यवस्था में तीनों अंगों के बीच शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। अमेरिका में भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका करती है फिर उसकी स्वीकृति विधायिका देती है ज्ञानी अमेरिका में भी स्वयं अगले जजों की अनुशंसा नहीं करते हैं यही सरकार के तीनों अंगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ उनकी निगरानी एवं संतुलन वाली व्यवस्था है।

भारतीय कोलेजियम व्यवस्था की एक विकृत भी है न्यायाधीशों का अपने उत्तराधिकारी तय करना और सेवानिवृत्त के बाद भी राजकीय आयोगो ब अभिकरणों में नियुक्ति और यहां तक कि किसी पार्टी का कार्यकर्ता और सांसद बनने का विकल्प खुला रखना जैसे पहलू उनके मूल न्यायिक कार्य के प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करते हैं। यह संभावनाएं किसी रिटायर होने वाले जज पर अवांछनीय प्रभाव डाल सकती हैं इसलिए पूर्व कानून मंत्री अरुण जेटली ने भी सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की पुनः उच्च राजकीय पदों पर नियुक्त को अनुपयुक्त कहा था ।स्पष्ट है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति और सेवानिवृत्ति के बाद उनकी नीतियों की प्रक्रिया में परिवर्तन आवश्यक है जिसका केंद्रीय मंत्रियों किरण रिजिजू ने भी समर्थन किया है।

वास्तव में देखा जाए तो कॉलेजियम वाली मौजूदा व्यवस्था अनुचित ही है ।इस व्यवस्था से लोग खुश नहीं है और यह न्यायाधीशों की आपसी राजनीति से ग्रसित हो गई है ।वरिष्ठ न्यायाधीश अपने मूल दायित्व से अधिक अगली नियुक्तियों की चिंता में रहते हैं जजों का आधा समय और दिमाग अगला उत्तराधिकारी नियुक्त करने में खर्च हो जाता है और ऐसी नियुक्ति व्यवस्था संविधान की भावना से भी परे है। जजों का काम न्याय करना है दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं कि जल्द ही जजों की नियुक्ति करें। निसंदेह केंद्रीय कानून मंत्री ने आलोचना के स्वर में यह बात कही हो लेकिन काफी हद तक सही भी है लंबे समय से इस पर चर्चा हो रही है सुप्रीम कोर्ट के कई जज बदलाव के लिए आवाज उठा चुके हैं।

न्यायाधीशों की नियुक्ति में आपसी राजनीति भाई भतीजावाद और अनुचित व्यवहार के चर्चा सुप्रीम कोर्ट के गलियारों में भी होना आम बात है ।यदि किसी न्यायाधीश का कार्यकाल कुछ महीने भर का हो तो उसे कॉलेजियम मीटिंग में भी अन्य वरिष्ठ जनों का सहयोग नहीं मिलता भाई भतीजावाद पर तो अंकल जज का मुहावरा आजकल आम बात बन गया है। अनुपयुक्त व्यवहार के अन्य उदाहरण भी दिखते हैं। हाल में ही एक जज ने एक कार्यक्रम में उस व्यक्ति के साथ बैठकर उसी का सम्मान ग्रहण किया जिसका मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था ।

कॉलेजियम पद्धति में एक यह भी है कि अगले न्यायाधीशों की अनुशंसा करने वाली बैठक का कोई भी हो रहा नहीं जाता यानी बैठक में प्रस्ताव पर चर्चा हुई किस जज ने क्या कहा किस ने अनुशंसा करने के पक्ष विपक्ष में क्या बातें कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता है क्योंकि सरकार को एक नियम है इस निर्णय की प्रमाणिकता रिकॉर्ड में रहती है। ऐसे में नियुक्त करने का कोई भी व्यक्ति भी नहीं हो रही थी और मांग नहीं माने जाने पर बैठक में शामिल होने से मना कर दिया था ।इसके बाद भी वही प्रक्रिया चलती रही है जबकि स्वयं द्वारा की जाने वाली नियुक्त का विवरण दर्ज न किया जाना आश्चर्यजनक है।

Leave a Reply