जातिगत आधार पर भेद ने कई मोर्चों पर राष्ट्र के उत्थान की राह को बाधित किया है। इसके दुष्परिणामों को निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा समझाया जा सकता है ।जाति की व्यवस्था ने लोगों को अपनी जाति विशेष को लेकर ही बनाया ,जातिगत हितों को लोगों ने राष्ट्रीय हित से ऊपर स्थान दिया, समय-समय पर समाज को इसके दुष्परिणाम झेलने पड़े, लोकतंत्र का मूल है समाज और सभी व्यक्तियों को समान अधिकार देता है ।इससे उतर जाति व्यवस्था में भी भेद की बड़ी खाई बनाई है या पूरी तरह से लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है।
जन्म से जाति श्रेष्ठा एवं हीनता की व्यवस्था ने शोषण के अनंत चक्र को जन्म दिया। अंग्रेजों ने फूट डालने की अपनी नीति से इसे हवा दी ,परिणाम यह हुआ कि समाज का बड़ा वर्ग शोषित होकर मुख्यधारा से कट गया ।जातिगत विभेद का दुष्परिणाम यह भी हुआ कि इस निर्णायक व्यवस्था पर कुछ ही लोगों का अधिकार पर बना रहा है ।इसे जमीनी स्तर पर विकास बाधित हुआ और अंतत देश की पूरी आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई।
इस व्यवस्था ने कथित तौर पर निम्न जाति की अच्छी प्रतिभाओं को भी सामने आने का मौका नहीं दिया। पूरी व्यवस्था कुछ कथित ऊंचे वर्ग के लोगों के पोषण में लगी रही, जातिगत स्तर पर भी भेजने हिंदू समाज के बड़े वर्ग को उपेक्षित अनुभव कराया। इसका लाभ अंतरण में जुटी मिशनरियों को मिला। कई राज्यों में बड़े पैमाने पर निम्न वर्ग के लोगों के मकान तरण के मामले देखे गए माता अंतरण का खेल आज भी बदस्तूर जारी है।
अब बात करते हैं इस खेल की आज से लगभग 70 वर्ष पूर्व भारत के प्रत्येक भाषाई क्षेत्र लगभग 2000 जातियों में उपजातियां विद्यमान है। यह बात समाजशास्त्री जीएस धुर्वे ने जाति पर लिखी अपनी एक पुस्तक में कहीं हम समझ सकते हैं कि भारतीय भाषाओं क्षेत्रों को देखते हुए यहां कितनी जातियां होगी ।लगभग एक दशक पूर्व जब मोहन भागवत जी ने भारतीय समाज से जाति व्यवस्था को समाप्त करने की अपील की इसके पीछे उनकी गहरी सोच थी। हिंदुओं में एकता इसी व्यवस्था के चलते नहीं आ पा रही है ।संवैधानिक प्रावधानों के कारण कुछ अन्य तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं निम्न जातियों में सवर्णों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही जातिवाद देखने को मिलता है वहीं दूसरी जातियों में बाइक संबंध स्थापित नहीं करते।
आज जाति को समाप्त करना आसान नहीं है सरकारी प्रयास से कुछ नहीं होगा ,समय के साथ-साथ नई सामाजिक आर्थिक परिस्थितियां इसके प्रभाव को कम कर सकते हैं ।आज शहरी क्षेत्रों में जात के मूल्य एवं उनके मैसेज ज्यादा प्रभावी नहीं है ।जाति संबंधी बातें सामान्यतः व्यक्ति करता ही नहीं है राजनीतिक जाति के लिए अमृत समान है ।चुनाव आते ही जाति जोर-जोर से चर्चा में आ जाती है। समाचार पत्र एवं संचार समस्त माध्यम जाति के आधार पर विश्लेषण प्रारंभ कर देते हैं इसके साथ-साथ विभिन्न जातियों के आरक्षण का लाभ सरकारी स्तर पर दिए जाने की संभावना के चलते स्वार्थी तत्व मुद्दे को बांटने का काम करते हैं।
जाति कब वर्ण के स्थान पर आयी,आगे कोई स्पष्ट ठोस प्रमाण नहीं है इसकी उत्पत्ति के भी सिद्धांत वही बताए जाते जो वर्ण के बताए गए थे स्पष्ट है कि ऐसा संभव नहीं हो सकता कि गुण व कर्म के आधार पर आधारित व्यवस्था का जन्म पर आधारित हो गई है। वार्ड की गतिशीलता इसमें गायब हो गई है जाति एक बंद वर्ग के रूप में विकसित किए जाने लगी है समय के साथ-साथ जाति के आधार पर समाज में बहुसंख्यक लोगों को भी भेदभाव अन्याय अत्याचार शोषण का शिकार होना पड़ा।। समाज का खंड आत्मक विभाजन सामने आया यह भी एक महत्वपूर्ण बात है कि जितनी जात की आलोचना हुई उतनी ही उस व्यवस्था मजबूत होती गई। कई आरोप निराधार भी रहे संवैधानिक मूल्यों का पालन जरूरी है और उतना ही जरूरी है भारत माता की मजबूती प्रदान करना राष्ट्रवाद की भावना को बाधित करने वाली जाति को विदा करने का समय आ गया है ।सम्मिलित प्रयास की आवश्यकता है ताकि भारत विश्व गुरु के रूप में आशान्वित होकर सफलता प्राप्त कर सकें।
अनेक लोग वर्ण और जाति को एक समझने की भूल करते हैं।
वर्ण व्यवस्था प्राचीन भारतीय समाज की एक ऐसी व्यवस्था थी जो गुण और कार्य पर आधारित थी या खुली व्यवस्था थी जिसमें व्यक्ति अपनी क्षमताओं का भरपूर उपयोग करता था अपने गुण और कार्य के आधार पर व्यक्ति किसी भी वार्ड में जा सकता था भगवान समानताएं थीं लेकिन उनमें जाति व्यवस्था जैसे दोस्त नहीं थे एक वर्ड के धर्म निर्धारित थे लेकिन वह धर्म के साथ-साथ समाज धर्म इत्यादि की व्यवस्था थी या कहा गया कि सभी मान सम्मान है अब तक तो है तो केवल और कर्म का इसी आधार पर वर्ण प्रकारों की भिन्नता दिखाई जाती है वर्ण की उत्पत्ति के कई सिद्धांत भी सामने आए जो आज भी फलित है।