क्या हिंसा के रास्ते होगा दलितों का उत्थान

सुप्रीम कोर्ट का ताजा निर्देश था कि यदि किसी भी अनुसूचित व्यक्ति का अपमान, नुकसान और उस पर अत्याचार होने पर वैसा करने वाले को तुरंत गिरफ्तार न किया जाए। उसे गिरफ्तार करने के पहले शिकायत की जांच हो और उच्चाधिकारी की सहमति मिलने पर ही उसे गिरफ्तार किया जाए जैसा कि हर मामले में पुलिस करती है और चार्जसीट लगाती है। ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत भी दी जाए। अदालत ने यह फैसला इसलिए किया कि अनुसूचितों पर अत्याचार के बहाने ब्लेकमेलिंग का धंधा जोरों से चल पड़ा था। ऐसे सौ मामलों में से लगभग 75 मामले अदालत में पहुंचने पर फर्जी सिद्ध हो जाते थे।दूसरी बात यह है कि उसके इस आदेश से समता का प्रभाव बढता और जो लोग विशेष सुविधा का लाभ लेकर लाभ उठा रहे क्ह रूकता लेकिन इसके लिये दलित-हिंसा में लगभग 15 लोगों का मरना और सैकड़ों का घायल होना बहुत दुखद है। सर्वोच्च न्यायालय ने दलित अत्याचार निवारण कानून में जो संशोधन किए थे, यह आंदोलन उसके खिलाफ है।
अब इस आदेश पर एक नजर डाली जाय तो गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ फार्मेसी कराड के एक एससी एसटी जाति के स्टोर कीपर की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उनके सीनियर ने विपरीत टिप्पणी दर्ज की। स्टोर कीपर ने उनके विरुद्धएससी एसटीएट्रोसिटी एक्ट के तहत पुलिस में दर्ज कर दी। पुलिस ने उन अधिकारियो को गिरफ्तार करने हेतु डायरेक्टर ऑफ टेक्निकल एजुकेशन से अनुमति मांगी जिसे मंजूर नहीं की गई । इसके करीब 5 साल बाद उक्त स्टोर कीपर ने डायरेक्टर टेक्निकल एजुकेशन के विरुध्द FIR दर्ज करवा दी। (पेज 3 ,4). डायरेक्टर ने अग्रिम जमानत हेतु न्यायालय में याचिका पेश की जिस पर केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
कानून कहता है कि एट्रोसिटी एक्ट में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के नागरिकों के विरुद्ध होने वाले कृत्यों को अपराध माना गया है जैसे, उनका सामाजिक बहिष्कार करना, जान बूझ कर उन्हे सार्वजानिक रूप से अपमानित या प्रताड़ित करना,, इत्यादि. विवाद का विषय यह है कि इस एक्ट के सेक्शन 18 के अनुसार, यदि इस एक्ट के अंतर्गत यदि किसी की विरुद्ध एफआईआर की जाती है तो उसे अग्रिम जमानत नहीं मिल सकती . इसका यह भी अर्थ निकाला गया की यदि कोई कंपलेंट करे तो उसे प्राथमिकी दर्ज कर गिरफ्तार करना है भले ही बाद में कोर्ट में केस झूठा सिद्ध हो पर उसे पहले जेल जाना होगा। विडम्बना ये है कि लूट, डकैती, बलात्कार , हत्या जैसे आरोपों में भी अग्रिम जमानत मिल सकती है पर एट्रोसिटी एक्ट के तहत नहीं. (फैसले का पृष्ठ 15 एवं 24). इस एक्ट का दुरूपयोग करते हुए बड़ी संख्या में केस विशेष रूप से शासकीय एवं अर्धशासकीय सेवकों के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वार्थवश फाइल किये गए हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो , मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स के डाटा (क्राइम इन इंडिया 2016- सांख्यिकी) के अनुसार वर्ष 2016 में एससी मामले में 5347 केस एवं एसटी के 912 केस झूठे पाए गए. वर्ष 2015 में 15638 में से 11024 केसेस में आरोप मुक्त कर दिए गए , 495 केस वापस ले लिए गए (पृष्ठ 30)। वर्ष 2015 में कोर्ट द्वारा निष्पादित केस में से 75: से अधिक केस में या तो आरोप सिद्ध नहीं हुये या केस वापस ले लिए गए (पृष्ठ 33 )। कोर्ट ने कहा कि सामाजिक न्याय के लिए बने इस एक्ट का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। इसे व्यकितगत शत्रुता के कारण बदला लेने या ब्लैकमेल करने का हथियार बनने नहीं देना चाहिए. (पृष्ट 25 ). कानून निरपराध को बचाने एवं दोषी को दंड दिलाने के लिए है. अतः यदि प्रथम दृष्ट्या किसी ने अपराध नहीं किया है तो सिर्फ किसी के आरोप लगा देने मात्र से सेक्शन 18 के तहत अग्रिम जमानत न देना उचित नहीं है। इस तरह स्वतंत्रता के मूल संवैधानिक अधिकार का हनन होगा. यदि ऐसा नहीं हुआ तो शासकीय सेवकों का कार्य निष्पादन कठिन होगा। सामान्य नागरिक को भी इस एक्ट के तहत गलत केस में फंसा देने की धमकी दे कर ब्लैक मेल किया जा सकता है। (पृष्ठ 67 ) .
अंततः कोर्ट ने कहा की एट्रोसिटी एक्ट के केस में अग्रिम जमानत देने पर कोई रोक नहीं है अगर प्रथम दृष्टया केस दुर्भावनावश फाइल किया गया हो। निरपराध नागरिकों को गलत आरोपों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए डी एस पी द्वारा समयबद्ध प्राथमिक जांच की जानी चाहिए एवं केस रजिस्टर होने के बाद भी गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है। इस एक्ट के हो रहे दुरूपयोग के मद्देनजर शासकीय सेवकों को बिना नियुक्तिकर्ता अधिकारी की अनुमति के गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। गैर शासकीय सेवकों के केस में जिले की वरिष्ठ पुलिस सुपरिंटेंडेंट की अनुमति आवश्यक होगी. (पृष्ठ 86 87)।
सही मायने में देखा जाय तो यह आंदोलन होना ही था, सर्वोच्च न्यायालय के खिलाफ लेकिन इसमें निशाना बनाया जा रहा है, मोदी सरकार को ! जिसका इस मामले से कोई लेना देना नही है। यह मामला सीघा कोर्ट का है और इंगित करता है यह लोग कोर्ट से अपने को सर्वोपरि मानते है। इसका अर्थ क्या हुआ ? क्या यह नहीं कि यह दलितों का आंदोलन कम और मोदी-विरोधी ज्यादा है ? विरोधी नेताओं के पास मोदी-पार्टी के विरुद्ध न तो कोई ठोस मुद्दा है और न ही कोई प्रचंड नेता है। तो वे क्या करें ? और कुछ नहीं तो वे दलितों और आदिवासियों को ही अपनी तोप का गोला बना दें।जो अपनों पर ही आग उगल रही है।देखा जाय तो इस आंदोलन में जुडे नेताओं का दलित समाज से कुछ नही लेना देना है और इसमें दलित है इस बात पर संदेह जाता है क्योंकि दलित नेताओं ने इस मामले पर दलितों के शामिल होने से इंकार कर दिया।कहा कि दलित आंदोलन के नाम पर दलितों को जबरन जेल में डाला जा रहा है जो गलत हैं । तो फिर अब सवाल यह उठता है कि आखिर आंदोलन किया किसने ?
इस तथ्य के बाबजूद केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डालकर उससे अनुरोध किया है कि वह उस दलित रक्षा कानून को कमजोर न बनाए मैं सोचता हूं कि इस तरह के कानून से दलितों पर होनेवाले अत्याचार में कमी नहीं आती है बल्कि वह बढ़ता ही जाता है। फर्जी मुकदमों से समाज में कटुता और तनाव फैलता है। लोगों के दिलों में घृणा भरती जाती है। जो कानून अत्याचार रोकने के लिए बना है, वह स्वयं अत्याचारी बन जाता है।: सभी दलों के नेताओं को चाहिये अदालत के इस फैसले का समर्थन करना चाहिए था और देश के अनुसूचितों को समझाना चाहिए था कि यह फैसला उनके लिए कितना हितकर है। लेकिन इनमें सच बोलने की हिम्मत नहीं है। ये अनुसूचितों का भला नहीं, अपना भला चाहते हैं। अपने वोट और वो भी अंधे थोक वोट कबाड़ने में इन सभी दलों के नेताओं ने सभी मर्यादाओं को उल्लंघन कर दिया है। वे जातिवाद के राक्षस की रक्त-पिपासा भड़का रहे हैं। जब तक देश में से जन्मना जातिवाद खत्म नहीं होगा, अनुसूचितों पर अत्याचार होता रहेगा।जिसकी पक्षधर सभी पार्टियां है।अब सवाल अभी भी यह बना हुआ है कि दूसरों को सताकर ,फंसाकर दलित का उत्थान होगा।

 

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