क्या इस देश का इतिहास 1947 से शुरू होता है ? क्या 1947 से पूर्व इस देश का अस्तित्व नहीं था ? यदि नहीं था तो फिर 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस क्यों मनाते हो ? फिर तो 15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस मनाओ लेकिन नहीं , 15 अगस्त को इस देश का जन्मदिवस नहीं मनाया जाता , स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाता है ।अब जरा सोचिए कि स्वतन्त्र कौन होता है ? स्वतन्त्र वही होता है जो परतन्त्र रहा हो यदि यह देश 15 अगस्त 1947 के पूर्व था ही नहीं तो फिर वह कौन परतन्त्र था जो स्वतन्त्र हुआ ? यदि वह परतन्त्र यह देश ही था तो इससे यह सिद्ध हो गया कि 15 अगस्त 1947 के पूर्व भी यह देश था ।अब सोचने की बात है कि 15 अगस्त 1947 तक यह देश था और भारत था और एक था तो कैसे था ?क्या इस संविधान की वजह से था ? क्या इस तिरंगे झंडे के कारण था ?या फिर इस जनगणमन अधिनायक के कारण था ? गांधी के कारण था ?पटेल के कारण था ? या फिर नेहरू और अम्बेडकर जैसों के कारण था ?स्पष्ट है कि इनमें से कुछ भी नहीं था फिर भी यह देश भारत था कि नहीं और भारत था तो एक और अखण्ड तो था ही,भले ही इसके छोटे छोटे अनेक टुकडों पर अनेक राजा राज्य करते रहे हों आज भी देश में अनेक राज्य हैं,उन राज्यों में अलग अलग पार्टियों की सरकारें हैं,लेकिन उन सबसे ऊपर केन्द्र में भी एक सरकार है,यह फर्क तो है।1947 से पूर्व इस देश में कोई केन्द्रीय प्रशासन नहीं था,यह सच है , लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि केन्द्रीय प्रशासन न होने और छोटी छोटी रियासतों में बंटे होने के बावजूद यह देश भारत के रूप में तो एक था ही,इतिहास उठा कर देख जाइये,ऐसा कोई कालखण्ड नहीं मिलेगा जब किसी के भी द्वारा इस देश के किसी भी अंश को भारत न मानने की बात कही गयी हो तो फिर जब कि यह भारत के रूप में ही एक था अखण्ड था तो यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि यह देश ऐसा कैसे था ?
यह मेरे बाल्यावस्था के समय की बात है उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के नाम पर विवाद खड़ा हो गया कुछ लोग इसमें हिन्दू शब्द के समावेश पर आपत्ति जताते हुए कह रहे थे कि इसका यह नाम अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जवाब में रखा गया है अब हिन्दुस्तान में मुस्लिम विश्वविद्यालय तो किसी हद तक समझ में आ सकता है,लेकिन हिन्दुस्तान में हिन्दू विश्वविद्यालय । यह नाम बदला जाना चाहिये। इसके लिये पक्ष विपक्ष में दलीलें दी जा रही थीं,अखबारों में लेख छप रहे थे इसी प्रसंग में एक अखबार ने एक बार एक ईंट की फोटो छापी उस ईंट पर लिखा था का हि वि,अर्थात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसा कि किसी भी ईंट पर उसके ब्राण्ड का नाम उसके सांचे में ही डाल देते है , ठीक उसी तरह उस अखबार ने नीचे टिप्पणी करते हुए लिखा कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दू शब्द हटाओ,कितना हटाओगे , इसकी तो एक एक ईंट पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय लिखा हुआ है,कहाँ तक हटाओगे ?
इसे पढ़ कर मेरे मन में विचार आया कि किसी देश का स्वरूप और उसकी एकता अखण्डता तभी तक बने रह सकते हैं जब तक उस देश के एक एक नागरिक बच्चे बच्चे के मन बुद्धि मे उस देश के स्वरूप और एकता अखण्डता की अमिट छाप पड़ी हो और जहाँ तक इस देश का सम्बन्ध है,इसे एक धर्म ने ही सम्भव बनाया।कैसे ? इस धर्म ने अपने प्रत्येक आचरण अपनी प्रत्येक क्रिया के प्रारम्भ में संकल्प को अनिवार्य कर दिया । संकल्प ,जिसमें जरूरी होता था कि कर्ता अपने प्रत्येक संकल्प में उस कर्म,उस कर्म के प्रयोजन के साथ साथ उस देश और काल का भी उच्चारण करे,जिस देश और काल में वह उस कर्म को करने जा रहा है इसके परिणामस्वरूप बने संकल्प के इस स्वरूप को जरा देखिये —–
हरि : ओम् तत्सदद्यैतस्य श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविम्शतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते पुण्यक्षेत्रे …..
यह संकल्प इस धर्म के स्वरूप में इस तरह समाविष्ट था कि इस धर्म के नाम पर होने वाली कोई भी क्रिया शुरू ही इससे होती थी, इसके बिना उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी स्नान से पहले संकल्प,सन्ध्या वन्दन से पहले संकल्प,ब्रह्मयज्ञ से पहले संकल्प,तर्पण से पहले संकल्प , देवपूजन से पहले संकल्प , बलिवैश्वदेव से पहले संकल्प , माने कुछ भी धार्मिक कर्म करो तो पहले संकल्प और इस संकल्प मे देश के नाम का उच्चारण करते हुए बोलना —भारतवर्षे भरतखण्डे , भारतवर्षे भरतखण्डे ।कौन सा देश भारतवर्ष है यह भी इसी धर्म ने ही बता रखा था —
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् ।वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति : ।। विष्णुपुराण ।
अर्थात् पृथ्वी का वह भाग भारतवर्ष है जो हिमालय के दक्षिञण में और समुद्र के उत्तर में स्थित है और जहाँ उत्पन्न हुए लोगों को भारती कहा जाता है ।
भारते पि वर्षे भगवान्नरनारायणाख्य आकल्पान्तमुपचितधर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्योपशमो परमात्मोपलम्भनमनुग्रहायात्मवतामनुकम्पया तपोS व्यक्तगतिश्चरति । तं भगवान्नारदो वर्णाश्रमवतीभिर्भारतीभि : प्रजाभि : भगवत्प्रोक्ताभ्याम् साङ्ख्ययोगाभ्याम् भगवदनुभावोपवर्णनं सावर्णेरुपदेक्ष्यमाण : परमभक्तिभावेनोपसरति । – श्रीमद्भागवत|
इसी धर्म ने इस देश के स्वरूप का वर्णन करते हुए इसकी महिमा बतायी —
भारतेप्यस्मिन् वर्षे सरिच्छैला : सन्ति बहवो मलयो मंगलप्रस्थो मैनाकस्त्रिकूट ऋषभ : कूटक : कोल्लक : सह्यो देवगिरिर्ऋष्यमूक : श्रीशैलो वेङ्कटो महेन्द्रो वारिधारो विन्ध्य : शुक्तिमानृक्षगिरि : पारियात्रो द्रोणश्चित्रकूटो गोवर्धनो रैवतक : ककुभो नीलो गोकामुख इन्द्रकील : कामगिरिरिति चान्ये चशतसहस्रश : शैलास्तेषाम् नितम्बप्रभवा नदा नद्यश्चसन्त्यसंख्याता : ।एतासामपो भारत्य : प्रजा : नामभिरेव पुनन्तीनामात्मना चोपस्पृशन्ति । चन्द्रवसा ताम्रपर्णी अवटोदा कृतमाला वैहायसी कावेरी वेणी पयस्विनी शर्करावर्ता तुङ्गभद्रा कृष्णा वेण्या भीमरथी गोदावरी निर्विन्ध्या पयोष्णी तापी रेवा सुरसा नर्मदा चर्मण्वती सिन्धुरन्ध : शोणश्च नदौ महानदी वेदस्मृतिर्ऋषिकुल्या त्रिसामा कौशिकी मन्दाकिनी यमुना सरस्वती दृषद्वती गोमती सरयू रोधस्वती सप्तवती सुषोमा शतद्रूश्चन्द्रभागा मरुद्वृधा वितस्ता असिक्नी विश्वेति महानद्य : ।अस्मिन्नेव वर्षे पुरुषैर्लब्धजन्मभि : शुक्ललोहितकृष्णवर्णेन स्वारब्धेन कर्मणा दिव्यमानुषनारकगतयो बह्व्य आत्मन आनुपूर्व्येण सर्वा ह्येव सर्वेषाम् विधीयन्ते यथावर्णविधानमपवर्गश्चापि भवति ।
इस धर्म ने ही इस देश की महिमा का ,देखिये जरा कैसा अद्भुत वर्णन किया है —-
एतदेव हि देवा गायन्ति —-
अहो अमीषाम् किमकारि शोभनम् प्रसन्न एषाम् स्विदुत स्वयं हरि :।
यैर्जन्म लब्धं नृषु भारताजिरे मुकुन्दसेवौपयिकं स्पृहा हि न : ।।
देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैँ —–
अहा जिन जीवों ने भारत वर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्य जन्म प्राप्त किया है ,उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है ? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं।इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं ।
कल्पायुषाम् स्थानजयात् पुनर्भवात् क्षणायुषाम् भारतभूजयो वरम् ।
क्षणेन मर्त्येन कृतं मनस्विन : संन्यस्य संयान्त्यभयं पदं हरे : ।।
यह स्वर्ग तो क्या — जहाँ के निवासियों की एक एक कल्प की आयु होती है,किन्तु जहाँ से फिर संसार चक्र में लौटना पड़ता है , उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारत भूमि में थोड़ी आयुवाला होकर जन्म लेना अच्छा है , क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्यशरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण कर के उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है ।
यद्यत्र न : स्वर्गसुखावशेषितं स्विष्टस्य सूक्तस्य कृतस्य शोभनम् ।
तेनाजनाभे स्मृतिमज्जन्म न : स्याद् वर्षे हरिर्भजताम् शं तनोति ।।
अत : स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष मे भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले क्योंकि श्री हरि अपना भजन करने वाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं ।
यह एक धर्म ही है जो इस देश का स्वरूप ही नहीं बताता,इसके महत्त्व का वर्णन करते हुए अपने अस्तित्व को ही इसके अस्तित्व के साथ जोड़ देता है —-तत्रापि भारतमेव वर्षं कर्मक्षेत्रम् —- भागवत 5 , 17 , 11 , भारतवर्ष ही कर्मक्षेत्र है ,माने इस धर्म के आचरण का फल किसी को तभी मिलेगा जब वह इस धर्म का आचरण इसी देश में करे यह देश मात्र एक देश नहीं है ,यह तो एक खेत है जिसमें धर्म की खेती होती है धर्म की दृष्टि से यह बहुत उपजाऊ खेत है ।जैसे किसी खेत मे गेहूँ बहुत अच्छा पैदा होता है तो कहीं बाजरे की पैदावार अच्छी होती है।कश्मीर में केसर पैदा होती है ,मैसूर में चन्दन पैदा होता है,हिमाचल मे सेव और आसाम में चाय की खेती बढ़िया होती है।वैसे ही इस धर्म के धर्मशास्त्र कहते है कि इस धर्म को पैदा करने के लिये सबसे बढ़िया खेत यह भारतवर्ष ही है इस धर्म की खेती अर्थात् इस धर्म का आचरण इस देश में करने पर धर्म की पैदावार जबर्दस्त होती है , उसका फल जबर्दस्त मिलता है।
धर्मशास्त्रो के इस वर्णन का और अपने मानने वालो को दिये गये आदेश का,विधान का ही यह प्रभाव था कि इस देश के मूल निवासी सभी वर्णाश्रमी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र अपने प्रतिदिन के सभी लौकिक पारलौकिक कार्यो के प्रारम्भ में देश के उल्लेख के रूप में इस देश के नाम का उच्चारण अवश्य करते थे।भारतवर्षे भरतखण्डे ये दो शब्द इस देश के बच्चे बच्चे की जुबान पर रहते थे इस तरह इस देश की जो इमारत बनायी गयी थी उसकी ईंट ईंट पर लिखा हुआ था —- भारतवर्ष कोई कैसे मिटा सकता था इस लिखे हुए को ।