बड़ी नदी से छोटी नदियों का जीवन

कोई बड़ा पर्व-त्योहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें। छोटी नदी या तालाब या झील के आसपास बस्ती। यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपड़े धोने, मवेशी आदि के लिए। पीने की पानी के लिए घर-आंगन, मोहल्ले में कुआं, जितना जल चाहिए, श्रम  करिए , उतना ही रस्सी से खिंच कर निकालिए। अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा, यदि तालाब और छोटी नदी में  पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी।

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हजार छोटी ऐसी नदियां हैं, जो उपेक्षित है, उनके अस्तित्व पर खतरा है। उन्नीसवीं सदी तक बिहार (आज के झारखंड को मिला कर) कोई छह हजार नदियां हिमालय से उतर कर आती थी, आज इनमें से महज 400 से 600 का ही अस्तित्व बचा है। मधुबनी, सुपौल में बहने वाली तिलयुगा नदी कभी कोसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है। सीतामढ़ी की लखनदेई नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई। नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड़ के दर्द साथ साथ चलने की कहानी देश के हर जिले और कस्बे की है। 

लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है, उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही है कि धरती की कोख में जल भंडार तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदियां हंसती-खेलती हो। अंधाधुंध रेत खनन, जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण, ही छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं। दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है, जिस साहबी नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरु ग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं, झारखंड-बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हजार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई, हम यमुना में पैसा लगाते हैं, लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं। कुल  मिला कर यह नल खुला छोड़ कर पोछा लगाने का श्रम करना जैसा है।

छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती। उसके चारों तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी। नदी किनारे किसान भी है और कुम्हार भी, मछुआरा भी और धीमर भी नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ  सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है  जो  इससे प्रभावित नहीं हुआ हो। नदी-तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा। खत्म हुआ तो मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा। इससे एक तरफ  जल निधियां दूषित हुई तो दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महानगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं। स्वास्थ्य, परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केंद्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा  रहा है। जाहिर है कि नदी-जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है। सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तंत्र  का दस्तावेजीकरण हो, फिर छोटी नदियों की अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और अतिक्रमण को मानव-द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए।  नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें।

नदी में पानी रहेगा तो  तालाब, जोहड़  समृद्ध रहेंगे। नदी अब त्रासदी बन गई है। आज नदी के आसपास रहने वाले लोग मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से सार्वजानिक हैंड पम्प से  पानी लाने को मजबूर हैं, जब-तब जल संकट का हल्ला होता है तो या तो भूजल उलीचने के लिए पम्प रोप जाते हैं या फिर मुहल्लों में पाइप बिछाए जाने लगते हैं, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहां से आएगा? जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं। ऐसे में  छोटी नदियां धरती  के तापमान को नियंत्रित रखने, मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं। नदियों के किनारे से अतिक्रमण हटाने, उसमें से  बालू-रेत उत्खनन को  नियंत्रित करने, नदी की गहराई के लिए उसकी समय-समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह कि समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा।

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